SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ४१ व्यवस्थितेरव्यभिचारिणः' कार्यकारणभावस्य सुगतेतरक्षणेषु भिन्नसंतानेष्वपि भावात्, भेदतादात्म्ययोहि विरोधस्य सर्वथाप्यपरिहार्यत्वात्, संविदि वेद्यवेदकाकारभेदेपि तादात्म्योपगमादन्यथैकज्ञानत्वविरोधात् संविदाकारवेद्याद्याकारविवेकयोः प्रत्यक्षपरोक्षयोर्भदेपि संविदेकत्वाङ्गीकरणातु, कथंचित्तादात्म्याभावे संताननियमनिबन्धनस्य स्वभावविशेषस्यानुपलब्धः । तत्संतानापेक्षया प्रेत्यभावादि' मा मस्त, क्षणक्षयकान्ते संतानस्यैव साधयितुं दुःशक्यत्वात्, ज्ञानज्ञेययोः प्रतिक्षणं विलक्षणत्वात्। स एवाहं तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञानादनुस्मरणाद ___ भावार्थ-जिस प्रकार से मृत्पिड और वस्त्र में या तंतु और घड़े में कारण-कार्यभाव नहीं हो सकते हैं क्योंकि ये भिन्न-भिन्न कार्य-कारण संतान है। वैसे ही आप बौद्धों के यहाँ कारण से कार्य सर्वथा भिन्न ही माना है और संवति से उसे कार्य-कारण भाव कह दिया है। किन्तु कार्य-कारण परस्पर भिन्नता दोनों जगह समान है जैसे मृत्पिड से वस्त्र कार्य सर्वथा भिन्न है वैसे ही आपके कथनानुसार मृत्पिड से घट भी सर्वथा भिन्न है। पुन: आपके यहाँ कार्य-कारणभाव कथमपि घटित नहीं हो सकता है। यदि आप उन एक संतान के कार्य-कारणक्षणों में स्वभाव विशेष की कल्पना करेंगे तब तो कार्य-कारण में तादात्म्य को स्वीकार कर लेने में आपको क्या असंतोष है ? क्योंकि एक संतान के क्षणों में कथंचित् तादात्म्य रूप ही स्वभाव विशेष व्यवस्थित है। बुद्ध और बौद्ध के क्षणरूप भिन्न संतानों में भी अव्यभिचारी, कार्य-कारणभाव मौजूद है किन्तु वह अव्यभिचारी कार्य-कारणभाव स्वभाव विशेष नहीं हो सकता है। क्योंकि भेद और तादात्म्य में जो विरोध है वह सर्वथा भी अपरिहार्य है। मतलब कथंचित् प्रकार से ही उस विरोध का परिहार कर सकते हैं, सर्वथा नहीं। देखिये ! संवेदनाद्वैत में वेद्य और वेदकाकार से भेद होने पर भी आपने तादात्म्य स्वीकार किया है। अन्यथा उसमें एक-ज्ञानत्व का विरोध हो जायेगा। प्रत्यक्षरूप संविदाकार और परोक्षरूप बेद्याद्याकार विवेक में भेद होने पर भी संवित्रूप एकत्व स्वीकार किया गया है। अर्थात् इस कथन से भेद और अभेद में कथचित् ही विरोध है सर्वथा नहीं। क्योंकि कथंचित् भी तादात्म्य को स्वीकार न करने पर तो संतान के नियम के लिये कारणभूत स्वभाव विशेष की अनुपलब्धि है अर्थात् उपलब्धि नहीं हो रही है। इसलिये कार्य-कारणक्षणों में संतति की व्यवस्था न होने से संतान की अपेक्षा से प्रेत्यभावादि भी मत मानिये। क्योंकि क्षणक्षयकांत में संतान को सिद्ध करना ही दुःशक्य है। कारण इस क्षणिकैकांत 1 आशंक्य । ब्या० प्र०। 2 सौगतस्यापि (ब्या० प्र०) 3 वेद्याद्याकाराक्रान्तज्ञानं नेष्यते येनेदं दूषणं इत्याशंकायामाह । दि० प्र०। 4 तासः । दि० प्र०। 5 इयू । दि० प्र०। 6 ज्ञानस्य ज्ञेयस्यत्वस्वकीय स्वकीय पूर्वोत्तरक्षणापेक्षया । दि० प्र०। 7 अत्राह सौगतः यो बाल्याद्यवस्थायामभूवं स एवाहं । यद्वस्तु मया पूर्व दृष्टमनुभूतं वा तदेवेदमिति लक्षणं प्रत्यभिज्ञानं जायते । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy