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________________ क्षणिक एकांत में दूषण ] तृतीय भाग . [ १३५ स्वभावनियतत्वं च विनश्वरत्वं, न पुनः कालान्तरावस्थायिनः कदाचिन्नाशित्वमहेतुकत्वाहिनाशस्य' । तथा हि । यद्यद्भावं प्रत्यनपेक्षं तत् तद्भावनियतम् । यथान्त्यकारणसामग्री स्वकार्योत्पादनं प्रत्यनपेक्षा तत्स्वभावनियता, विनाशं प्रत्यनपेक्षश्च भावः । इति स्वभावहेतुः । न तावदयमसिद्धः, कलशादेविनाशस्य मुद्गरादिहेतुभिर्व्यतिरिक्तस्याव्यतिरिक्तस्य' वा करणासंभवात् , तं प्रति तदनपेक्षत्वसिद्धेः । घटादेर्व्यतिरिक्तस्य विनाशस्य करणे तदवस्थत्वप्रसङ्गाद्विनष्ट इति प्रत्ययो न स्यात् । विनाशसंबन्धाद्विनष्ट इति प्रत्ययोत्पत्तौ स्वभाव का निश्चय ही विनश्वरत्व है किंतु कालान्तर में भी अवस्थायी पदार्थ कदाचित् विनश्वर नहीं है क्योंकि विनाश अहेतुक है। तथाहि । विनाश के प्रति कुछ भो हेतु नहीं है इसी का स्पष्टीकरण करते हैं। "जो जो जिस भाव के प्रति अनपेक्ष है वह वह उस भाव का नियम निश्चित है।" जिस प्रकार से अन्त्य क्षण कारण सामग्री अपने कार्य को उत्पन्न करने के प्रति अनपेक्ष है उस स्वभाव से नियत है, उसी प्रकार से पदार्थ भी विनाश के प्रति अनपेक्ष है। इस प्रकार यह स्वभाव हेतु है। यह हमारा हेतु असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि कलशादि का विनाश मुद्गरादि हेतुओं से भिन्न है अथवा अभिन्न ! ___ इस प्रकार से दो विकल्प करने पर भी घटादि का विनाश मुद्गरादि हेतु से असम्भव ही है। इसलिये विनाश के प्रति मुद्गर आदि की अपेक्षा नहीं है यह बात सिद्ध ही है । यदि प्रथम पक्ष लेवें कि मुद्गरादि से घटादि का विनाश उस घटादि से भिन्न ही किया जाता है, तब तो घड़ा उसी रूप ही अवस्थित रहेगा पुनः घड़ा नष्ट हो गया यह प्रत्यय ही नहीं होगा क्योंकि विनाश तो उस घड़े से भिन्न यदि आप कहें कि विनाश के सम्बन्ध से नष्ट हो गया इस प्रकार का प्रत्यय उत्पन्न हो जाता है तब तो ऐसा मानने पर विनाश और विनाशवान में कोई सम्बन्ध कहना ही चाहिये । किन्तु 1 बौद्धमते क्षणक्षयोऽहेतकः । ब्या० प्र० । 2 सौगतो यौगादि प्रतिवादिनं प्रतिवदति । मुदगरादिभिः सहकारिकारण: क्रियमाणो विनाशो घटादेः सकाशाद्धन्नोऽभिन्नो वा इति विकल्प: उभयस्यापि कारणं न घटते । कस्मात्तं विनाशं प्रति तस्य कलशादेर्मुद्गरादि सहकारिकारणापेक्ष्या न सिद्धयंति यतः = घटादेविनाशोभिन्नश्चेत्तदा तस्य विनाशस्य करणे तस्य घटादेः अवस्थानत्वं प्रसजति कोर्थः विनष्ट इति निश्चयो न भवेत् । आह परः विनाशसंबंधाद्विनष्ट इति प्रत्यय उत्पद्यते इति चेत्तदुत्पत्ती सत्यां हि योग, विनाशविनाशवतोः कश्चनसंबंधः कथनीयः-तावत्स च संबंधः तादात्म्यलक्षणः नास्ति । कस्मात्तयोः विनाशविनाशवतोः भेदोङ्गीक्रियते यतो योगादिभिः । दि० प्र०। 3 भिन्नस्य । ब्या० प्र०। 4 क्षणिकोर्थः विनाशस्वभावनियतोभवितुमर्हति विनाशं प्रत्यन्यानपेक्षत्त्वात् । निष्पादन । ब्या० प्र० । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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