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________________ १३४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४१ रेऽपरे' निवर्तेरन् । क्षणिकोर्थः स्वान्त्यकारणसामग्रीसन्निपतितः स्वकार्यकारी तादृशस्वहेतुस्वभावादुत्पन्नत्वात् , न पुननित्य इति कल्पयित्वापि "स्वहेतु प्रकृति' भावनां 10स्वप्रकृतिरवश्यमन्वेष्या, तत्स्वभाववशात् तत्कारणप्रकृतिव्यवस्थापनात् । तदयमकारगोपि स्वभावनियतोर्थ:14 स्यात् । [ एकक्षणानन्तरं वस्तुनोऽस्थानमेव क्षणिकस्य स्वभावोस्ति इत्यादिना बौद्धः स्वपक्षं पुष्णाति ।] ननु च क्षणिकस्य क्षणादूर्ध्वमस्थानं स्वप्रकृतिविनश्वरत्वादन्विप्यते । विनाश उपादान कारण के आने पर सहकारी कारण हट जावे ऐसी बात नहीं है प्रत्युत दोनों ही कारणों से कार्य सिद्ध होता है। बौद्ध-अपने अन्त्य कारणरूप सामग्री में पड़ा हुआ क्षणिक पदार्थ स्वकार्य को करने वाला है, क्योंकि तादृश-कार्यकारी रूप अपने कारण रूप स्वभाव से उत्पन्न हुआ है। किंतु नित्य पदाथ कार्यकारी नहीं है क्योंकि तादृश स्वकारण रूप स्वभाव से उत्पन्न नहीं होते हैं। जैन इस प्रकार से स्वकारण स्वभाव रूप भावना (उत्तर कार्य को उत्पन्न करने वाले कारणों की वर्तमान कालीन भावना) को कल्पित करके भी स्वस्वभाव का अवश्य हो अन्वेषण करना चाहिये। क्योंकि उस कार्यभूत स्वभाव के निमित्त से उस कार्य के कारण स्वभाव की की जाती है। इसलिये यह अकारण रूप भी पदार्थ, स्वभाव नियत वाला हो जाता है। अर्थात यह नित्य है, इसका कारण नहीं है फिर भी कार्य कारण रूप स्वभाव से नियत है यह बात स्वीकार करना चाहिये। [ एक क्षण के अनंतर वस्तु का न ठहरना ही क्षणिक का स्वभाव है इत्यादि रूप से बौद्ध अपना पक्ष स्थापित करते हैं। ] बौद्ध-"क्षणिक की एक क्षण से ऊपर स्थिति नहीं है वही उसकी स्वप्रकृति है।" अर्थात् एक क्षण से ऊपर वस्तु का न ठहरना ही उसका स्वभाव है क्योंकि वह विनश्वर है। और विनाश - --- 1व। दि० प्र०। 2 क्षणिकस्य विशेषोस्तीति दर्शयन्नाह । दि० प्र० । 3 कायंजननसमर्थसहकारि । दि० प्र० । 4 प्रविष्टः । ब्या० प्र०। 5 प्राक्तनज्ञानकारणात् । ब्या० प्र०। 6 स्याद्वाद्याह्, कार्यजननसमर्थसहकारिकारणसामग्रीमिलितः क्षणिकोर्थः स्वकार्यं करोति कस्मात्तादृशात्समर्थात्सहकारिकारणस्वभावादुत्पन्नत्वात् नित्योर्थः पुनः स्वकार्य न करोति इति सहकारिकारणस्वभाव विन्तयित्वापि पदार्थानां स्वकृतिः उपादानस्वभावः अवश्यं विचारणीयाः सौगत: स्वप्रकृतिवशात् पुनः कस्मात् कार्यकारणस्वभावव्यवस्थापनत्वात् । यत एवं तत्तस्मादयमर्थः क्षणिको वा नित्यो वा सहकारिकारणानपेक्षोपि स्वभावेन कार्यकरणसमर्थो भवेत् । दि० प्र०। 7 स्वस्थ क्षणिकस्वकार्य्यस्य हेतुः । ब्या० प्र०। 8 स्वभावं । ब्या० प्र० । 9 कार्यभूतभावस्य । दि० प्र० । 10 क्षणि स्वभावः । ब्या० प्र० । 11 सर्वेषां भावनां स्वस्वभाववशात् स्वहेतुप्रकृतिव्यवस्थापनं घटते । कोर्थः उपादानकारणाभावे सहकारिकारणं कार्य न करोतीति । दि० प्र० । 12 नित्यः । ब्या० प्र०। 13 वम: । ब्या० प्र० । 14 कार्यकारणस्वभावनियतः । ब्या० प्र०। 15 तहि कि नामविनश्वरत्वम् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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