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________________ क्षणिक एकांत में दूषण ] तृतीय भाग [ १२७ नित्यस्य प्रतिक्षणमनेककार्यकारित्वे क्रमशोनेकस्वभावत्वसिद्धः कथमेकत्वं स्यादिति चेत् क्षणिकस्य कथमिति समः पर्यनुयोगः । [ क्षणिकेऽनेकस्वभावो नास्त्यतः कथं क्षणिकनित्ययोः साम्यमित्याशंकायामाचार्याः समादधते ] स हि क्षणस्थितिरेकोपि भावोनेकस्वभावश्चित्रकार्यत्वान्नानार्थवत् । न हि कारणशक्तिभेदमन्तरेण कार्यनानात्वं युक्तं रूपादिज्ञानवत् । यथैव हि कर्कटिकादौ' रूपादिज्ञानानि रूपादिस्वभावभेदनिबन्धनानि तथा क्षणस्थितेरेकस्मादपि भावात् प्रदीपादेवर्तिकामुखदाहतैलशोषादिविचित्रकार्याणि शक्तिभेदनिमित्तकानि व्यवतिष्ठन्ते । अन्यथा रूपादेर्नानात्वं न सिध्येत्', चक्षुरादिसामग्रीभेदात्तज्ज्ञाननिर्भासभेदोवकल्प्येत, कर्कटिकादिद्रव्यं तु रूपादि जैन- यदि ऐसा प्रश्न है तब तो क्षणिक में तथैव प्रतिक्षण अनेक कार्य करने का स्वभाव होने से उसमें भी अनेक स्वभाव सिद्ध हो जावे पुनः वह भी क्षणिक कारण एक कैसे हो सकता है ? इस प्रकार से समान ही प्रश्न हो जाता है। [ क्षणिक में अनेक स्वभाव नहीं अत: समान ही प्रश्न कैसे होगा ऐसी शंका होने पर पुनः जैनाचार्य उत्तर देते हैं। ] "वह क्षणस्थायी एक भी भाव अनेक स्वभाव वाला है, क्योंकि वह चित्र विचित्र कार्यों को निष्पादन करने वाला है नाना अर्थ के समान ।" कारण शक्ति में, भेद के बिना कार्य में नानाभेद युक्त नहीं है जैसे कि कार्यभूत रूपादि ज्ञानों की उत्पत्ति कारण शक्ति के नानाभेद बिना नहीं हो सकती है। जिस प्रकार से ककड़ी आदि में रूपादि अनेक ज्ञान रूपादि के स्वभाव भेद के निमित्त से हये हैं। उसी प्रकार से एक क्षणमात्र रहने वाले एक भी पदार्थ प्रदीपादि से वर्तिका मुख, दाह, तैलशोषण, तमोनिरसन, कज्जल मोचन, अर्थ प्रकाशन आदि अनेक कार्य उस प्रदीपगत शक्ति के भेद के निमित्त से ही व्यवस्थित होते हैं । अन्यथा-यदि शक्तिभेद नहीं मानो तो रूपादि में नानाभेद सिद्ध नहीं हो सकेंगे पुनः चक्षु आदि सामग्री के भेद से हो उस ज्ञान में प्रतिभास के भेद को कल्पना करनी पड़ेगी किंतु ऐसी कल्पना तो है नहीं। पूनः ककड़ी आदि द्रव्य तो रूपादि स्वभाव के भेद से रहित एक है, अनंश है । इस प्रकार से कहने वाले सांख्य का भी निवारण करना आपके लिये अशक्य हो जायेगा। 1 क्षणिकस्यानेकस्वभावत्वं नास्ति अतः कथं समापर्यनूयोग इत्याशंकायामाह। दि० प्र०। क्षणिकस्याप्यनुमानेनानेक स्वभावत्वं साधयति । ब्या० प्र०। 2 वल्लीफलविशेषरूपरसगन्धादिज्ञानानि । दि० प्र०। 3 एवं यदि तदारूपादिनिर्भासः कथं भवेदित्युक्ते आह । ब्या० प्र०। 4 कर्कटिकादी । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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