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________________ १२६ ] · अष्टसहस्री [ द्वि०प० कारिका ४१ [ कारणस्य निरन्वयविनाशानंतरमेव यदि कार्य भवेतहि तत्कार्य निर्हेतुकं भविष्यतीति जैनाचार्याः कथयंति। ] तथा चाकस्मिकत्वं स्यात्, समर्थं कारणमनपेक्ष्य स्वयमभिमतसमये भवतः कार्यस्य निर्हेतुकत्वप्रसक्तेनित्यकार्यवत् । उभयत्राविशेषेण कथंचिदनुपयोगेपि' क्वचिद्वचपदेशकल्पनायामन्यत्रापि किं न भवेत ? क्षणिकस्य कारणस्य सर्वथा कार्य प्रत्युपयोगाभावेपि तस्येदं कार्यमिति व्यपदिश्यते, न पुननित्यस्य' तादृश इति न किंचिन्निबन्धनमन्यत्र महामोहात् । इस प्रकार से अन्वय-व्यतिरेक के अनुविधान का अभाव नित्य और क्षणिक दोनों ही पक्ष में समान होने पर भी क्षणिकैकांत में ही कार्य का जन्म होवे, किंतु नित्य में न होवे। यह कथन केवल दुराग्रह मात्र के निमित्त से ही है। [ कारण के निरन्वय नष्ट हो जाने पर ही यदि कार्य होता है तो वह कार्य निर्हेतुक हो जावेगा, ऐसा आचार्य कहते हैं। ] वह कार्य आकस्मिक भी हो जायेगा। समर्थ कारण की अपेक्षा न करके स्वयं अभिमत समय में होता हुआ कार्य निर्हेतुक हो जायेगा, जैसे कि सांख्य के मत में नित्य कार्य निर्हेतुक है। . उभयत्र-क्षणिक और नित्य पक्ष में समानरूप से कथंचित्-अन्वय-व्यतिरेक प्रकार से उपयोग न होने पर भी क्वचित्-क्षणिक में "यह इस क्षणिक का कार्य है" ऐसा व्यपदेश करने पर तो अन्यत्र-नित्य में भी यह इस नित्य का कार्य है ऐसी कल्पना क्यों नहीं होगी ? क्षणिक कारण सर्वथा कार्य के प्रति अनुपयोगी है फिर भी 'उसका यह कार्य है' ऐसा कहा जाता है, किंतु उसी प्रकार से कार्य के प्रति अनुपयोगी 'नित्य कारण का यह कार्य है' यह नहीं कहा जाता है इस कथन में तो महामोह के सिवा अन्य कुछ भी कारण नहीं है अर्थात् महामोह के निमित्त से ही यह पक्षपात पूर्ण कथन है। बौद्ध-नित्य कारण प्रतिक्षण अनेक कार्य को करने वाला है अतः उसमें क्रमश: अनेक स्वभाव सिद्ध हैं पुन: उस कारण को एक कैसे कहा जा सकता है ? 1 कारणस्य । ब्या० प्र०। 2क्षणिकस्य कारणस्य । दि० प्र०। 3 सर्वथा नित्यस्य तादशस्य कार्य प्रत्यनुपयोगिनः तस्येदं कार्यमिति व्यपदेशो न घटते इत्यत्र महामोहं वर्जयित्वा अन्य किञ्चिन्निबंधनं नास्ति । इत्युक्त स्याद्वादिना=भाह सौगतः सर्वथानित्यः क्षणं क्षणं प्रति अनेककार्यकारी भवति चेत्तदा क्रमेण तस्यानेकस्वभाव सिद्धयति । एकत्वं कथं स्यादिति चेत् - नित्यवाद्याह । क्षणिकस्यापि प्रतिक्षणमनेककार्यकारित्वे क्रमशोऽनेक स्वभावत्वसिद्धः कथमेकत्वं स्यादिति द्वयोः समः प्रश्नः = अत्राह । स्याद्वादी क्षणिकएकोपि भाव: पक्षः । अनेकस्वभावो भवतीति साध्यो धर्म: विचित्रकार्यत्वात् यो विचित्रकार्यः सोऽनेकस्वभावः यथा नानार्थः घटपटादिलक्षणः विचित्रकार्यश्चायं तस्मादनेकस्वभावः एवं सति क्षणिकत्वं नष्टम् । दि० प्र० । 4 अन्वयव्यतिरेकप्रकारेण । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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