SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नित्य एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग अथ तृतीयः परिच्छेदः । मंगलाचरणं - ये नित्या नाप्यनित्या वा स्याद्वादिज्ञानगोचराः । अनाद्यनिधनाः शुद्धास्तान् सिद्धान् प्रत्यहं नमः ॥ १ ॥ * अष्टशती प्रथितार्था' साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात् । विलसदकलङ्कधिषणैः प्रपञ्चनिचितावबोद्धव्या । १ । नित्यत्वैकान्तपक्षेप विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ॥३७॥ 4 अर्थ - जो न नित्य हैं न सर्वथा अनित्य ही हैं, स्याद्वादीजनों के ज्ञान के विषय हैं, अनादि और अनंत हैं, शुद्ध हैं, उन सिद्धों को हम प्रतिदिन नमस्कार करते हैं । श्लोकार्थ - श्रीभट्टा कलंकदेव के द्वारा रचित अष्टशती प्रसिद्ध अर्थ से सहित है जो कि शोभायमान अकलंक - निर्दोष बुद्धि के धारक श्रीविद्यानन्दि स्वामी के द्वारा अष्टसहस्री रूप से की गई संक्षिप्त ही है । उत्तम बुद्धि धारक पुरुष को उसके अर्थ को और अधिक विस्तार करके समझना चाहिये ||१|| [ १०१ यदि सर्वथा सभी वस्तु हैं, नित्य कहो तब क्या होगा । हलन चलन परिणमनरूप, विक्रिया कार्य कैसे होगा || कर्त्तादि कारक के पहले, ही अभाव होगा निश्चित । Jain Education International ज्ञाता बिन फिर ज्ञान कहाँ, अरु कहाँ ज्ञान का फल सुघटित || ३७॥ कारिकार्थ - नित्यत्वैकांत पक्ष में भी परिणमन स्वरूप एवं परिस्पंद रूप विविध क्रियायें नहीं हो सकती हैं क्योंकि कार्य की उत्पत्ति के पहले से ही कारक का अभाव है एवं कारक के अभाव में प्रमाण भी कहाँ रहेगा ? और उसका फल भी कहाँ रहेगा ? ||३७|| 1 विसृतार्थाः । ब्या० प्र० । 2 अकलंकाधिषणा येषां ते तैरथवाभट्टाकलं कधिषणावद्धिषणा येषां ते तैः । पुनविस्तारः । अष्टशतीत्यादि । विलसदकलंक धिषणैर्भट्टाकलकदेवः कृता । अष्टशतीप्रथितार्थाप्रख्याताभिधेया भवतीतिक्रियाध्याहारः । सा विलसदकलंक धिषणैः विद्यानन्दः संक्षेपादष्टसहस्री कृतापि विलसदकलंक धिषणैरन्यैः विद्वद्भिः प्रपञ्चनिचितावबोद्धव्या । अकलङ्काः भट्टाकलङ्क देवैस्त एव धिषणा वृहस्पतयोऽकलंक धिषणाः वृहस्पतिः सुराचार्योगी:पतिर्द्धिषणो गुरुरित्यमरः । विलसन्तश्च ते अकलंक धिषणाश्च ते विलसदकलंक धिषणास्तैः । अकलंका एव धिषणा इत्यत्र रूपकालङ्कारः । उपमेव तिरोभूतभेदारूपकमिष्यते । इति वचनात् । पक्षे न विद्यते कलङ्कः संशयादिदोषो येषां तेऽकलङ्काः । अकलङ्काश्च ते धिषणाश्च तेऽकलङ्कधिषणाः । धिषणाशब्दोत्र विद्वद्वाची "मनीषी धिषणो धीमान् शेमुषीशोगिरांपति" रिति धनञ्जयः । विलसंतश्च तेऽकलंक धिषणाश्च ते तैविद्यानन्दरस्माभिरित्यर्था तृतीयपक्षेऽलंकाधिषणाबुद्धिर्येषां तेऽकलंक धिषणाः । शेषं सुगमं बुद्धिधिषणा मनीषा इत्यमरः । दि० प्र० । 3 विस्तरसहिता ज्ञेया । दि० प्र० । 4 अपि शब्देन नित्यत्वेकान्तग्रहणम् । ब्या० प्र० । 5 अन्यथोत्पद्यतेचेत्कारकाभावो न स्यात् । ब्या प्र० । * यह श्लोक हिन्दी टीकाकर्त्रीकृत है | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy