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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ 52 विशेषणमविवक्षाविषयत्वे सदेव न सिध्येत्' ? तदेव विधिप्रतिषेधधर्माणां सतामेव विवक्षेतराभ्यां योगस्तदर्थभिः क्रियेत, अन्यथार्थनिष्पत्तेरभावात् । न ह्यर्थक्रियार्थिनामर्थनिष्पत्तिमनपेक्ष्य विवक्षेतराभ्यां योगः संभवति, येन तदभावेपि स स्यात् । उपचारमात्रं तु स्यात् । न चाग्निर्माणवक इत्युपचारात् 'पाकादावुपयुज्यते । ननु चान्यव्यावृत्तय एव विवक्षेत अव्यवस्था का प्रसंग आ जायेगा । यदि आप वर्ण और उनके अंशों को अविवक्षा का विषय मानकर भी सत्रूप मानोगे तब तो अन्य भी अविवक्षित विशेषण को अविवक्षा का विषय मानने पर वह सत्रूप क्यों नहीं सिद्ध होगा ? अर्थात् यदि आप शब्दाद्वैतवादी शब्द को अविवक्षा का विषय मानकर भी उसे सतुरूप कहते हो तब तो भेद या अभेदरूप अविवक्षा के विषय को भी सत्रूप मानिये । “इस प्रकार से एकत्वानेकत्व विशेषण के इच्छुक जनों को जीवादि एक वस्तु में सत्रूप ही विधि - प्रतिषेध धर्मो का विवक्षा और अविवक्षा के द्वारा योग करना चाहिये । अन्यथा अर्थ की निष्पत्ति का अभाव हो जायेगा" क्योंकि अर्थक्रियार्थी जनों के लिये अर्थ निष्पत्ति की अपेक्षा न करके विवक्षा और अविवक्षा के द्वारा योग संभव नहीं है कि जिससे अर्थ निष्पत्ति के अभाव में भी वह योग हो सके अर्थात् नहीं हो सकता । "किंतु असत् रूप धर्मों का विवक्षा अविवक्षा के द्वारा कथन करने पर उपचार मात्र ही होगा क्योंकि माणवक - बच्चे में “यह अग्नि है" ऐसा उपचार कर देने पर पाकादि कार्य में उस अग्नि का उपयोग नहीं कर सकते हैं" अर्थात् बालक के उग्र-गरम स्वभाव को देखकर कोई उसे अग्नि कह देते हैं तो क्या उस बालक में भोजन पकाना आदि अग्नि के कार्य हो सकते ? बौद्ध - विवक्षा और अविवक्षा के द्वारा अन्य व्यावृत्तियों का ही योग किया जाता है किन्तु वस्तु स्वभाव नहीं कहा जाता है जिससे कि उन दोनों का सत्रूप विषय हो सके अर्थात् दोनों का विषय सत् नहीं है । जैन - ऐसा नहीं कहना क्योंकि व्यावृत्ति विषयक शब्दों से तो वस्तु में प्रवृत्ति का विरोध है अर्थात् व्यावृत्ति तो सामान्य है और सामान्यरूप से “घटमानय" ऐसा कहने पर घट को लाने की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी । बौद्ध - व्यावृत्ति और व्यावृत्तिमान् ( गौ ) में एकत्व का अध्यारोप होने से तद्वान् (गो) में प्रवृत्ति हो जाती है । जैन - ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि अध्यारोप तो विकल्परूप है, वह अर्थ को विषय नहीं 1 प्रयोजन । दि० प्र० । 2 प्रयोजन | ब्या० प्र० । 3 माणवकः पावकादो नोपयुज्यते इति संबन्धः । ब्या० प्र० । 4 संबध्यते । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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