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________________ ७२ ] अष्टसहस्री [ द्वि ० ५० कारिका ३२ वन्ध्यासुतयोरन्योन्यविधिप्रतिषेधलक्षणत्वं तथा पृथक्त्वस्वभावविधिरेव सर्वथैकत्वप्रतिषेधः स एव च तद्विधिः । इति कथमिव स्याद्वादमनिच्छतां विरुद्धधर्माध्यासः संभवेद्यतस्तदुभयकात्म्यं तत्त्वमेकान्तवादिनः स्वीकुर्युः ? सर्वथानभिलाप्यतत्त्वाधिगमेपि यदेतदनभिलाप्यं तत्त्वमिति तद्वयाहन्यते, पूर्ववत् । इत्यलं प्रपञ्चेन । 'तदेवमेकत्वाद्येकान्तनिराकृतिसामर्थ्यात्तदनेकान्ततत्त्वप्रसिद्धावपि तत्प्रतिपत्तिदाढार्थमन्यथाशङ्कापाकरणार्थं च तत्सप्तभङ्गी' समाविर्भावयितुकामास्तन्मूलभङ्गद्वयात्मकत्वं जीवादिवस्तुनः प्राहुः ।रूप विरोधी दो धर्मों का रहना विरुद्ध नहीं है क्योंकि वे परस्पर में विधि-प्रतिषेधलक्षण वाले हैं। जैसे कि वंध्या और उसका पुत्र ।" जिस प्रकार से वंध्या की विधि ही उसके पुत्र का प्रतिषेध है अथवा वंध्या पुत्र का प्रतिषेध ही वंध्या की विधि है इस प्रकार से वंध्या और उसके पुत्र में परस्पर में विधि प्रतिषेध लक्षण घटित है। तथैव पृथक्त्व स्वभाव की विधि ही सर्वथा एकत्व का प्रतिषेध है और एकत्व का प्रतिषेध ही पृथक्त्व स्वभाव की विधि है। जैन-इस तरह से स्याद्वाद सिद्धांत को स्वीकार न करने वालों के यहाँ यह विरुद्ध धर्माध्यास कैसे संभव हो सकेगा? जिससे कि उस उभयकात्म्य तत्त्व को एकांतवादी जन स्वीकार कर सकें अर्थात् हम स्याद्वादियों के यहाँ तो परस्पर विरुद्ध धर्माध्यास संभव है किन्तु आप एकांतवादियों के यहाँ कथमपि संभव नहीं हो सकता है क्योंकि आप एकांतवादी जन अपेक्षावाद को नहीं समझते हैं। "तत्त्व को सर्वथा अनभिलाग्य-"अवाच्य" रूप स्वीकार करने पर भी जो यह कथन है कि "तत्त्वं अवाच्यं" वह कथन भी नष्ट हो जाता है पहले कहे हये के समान ।" अर्थात् अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों धर्मों से "तत्त्व अवाच्य" है जैसे इस अवाच्य कथन के प्रकरण में दोषारोषण किया है वे सभी दोष यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये। उत्थानिका-इस प्रकार से एकत्व, पृथक्त्वादि पक्षरूप एकांत के निराकरण का सामर्थ्यय अनेकांत तत्त्व की प्रसिद्धि के हो जाने पर भी उसकी प्रतिपत्ति को और अधिक दृढ़ करने के लिये एवं अन्यथा-"एकत्वादि धर्मों का निराकरण करने से अनेकांत सकलधर्मों से शून्य है" इस प्रकार की अन्यथा शंका को दूर करने के लिये भेदाभेदादिरूप सप्तभंगी को बतलाने की इच्छा रखते हुये स्वामी श्रीसमंतभद्राचार्यवर्य जीवादि वस्तु के मूलभूत दो भंगों को कहते हैं 1 स एव सर्वथकत्वप्रतिषेधस्तस्य पृथक्त्वस्वभावस्य विधिः । दि० प्र०। 2 वाक्यालंकारे । ब्या० प्र०। 3 परस्परविरुद्धधर्माणामेकमणि संबन्धत्वम् । ब्या० प्र० । 4 वचनम् । दि० प्र०। 5 तदेततत्त्वमनभिलाप्यमिति कथने सति। तदनभिलाप्यत्वं-विरुद्धयते । यथा मे माता बन्ध्या इत्यादिवचः । दि० प्र०। 6 स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यादिवत् । ब्या० प्र०। 7 तस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेण । दि० प्र०। 8 अनेकान्तः। दि० प्र०। 9 श्रीसमन्तभद्राचार्यः । दि० प्र० । 10 प्रथम । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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