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________________ पृथक्त्व एकांत का खण्डन 1 तृतीय भाग [ ४१ नहीं माना है । असत्रूप खरविषाण में सत्ता का समवाय क्या करेगा ? एवं सत्रूप वस्तु में भी सत्ता का समवाय क्या है ? जब वे पदार्थ स्वयं सत् हैं । तथा संयोग आदि गुण परिणाम हैं जिसमें रहते हैं परिणामी हैं परिणामी अनेक हों एवं गुण एक, निरंश हो यह कथमपि शक्य नहीं है, क्योंकि गुण एक होकर युगपत् अनेक में नहीं रह सकते । अनेक होकर ही अनेकों में रहेंगे जो इनमें एकपने का व्यवहार है वह औपचारिक है । सदृशता के निमित्त से हुआ है । तथैव द्वित्व, त्रित्व आदि संख्यायें भी अनेक हैं, एक वस्तु में एकत्व संख्या द्वित्वादि की अविनाभाविनी है तथैव अनेक वस्तु में अनेक संख्या एकत्व के बिना नहीं है। मतलब यह है कि जहाँ जो स्वभाव से नहीं है वह परापेक्ष भी नहीं हो सकता अतः ये संख्यायें भी कथंचित् आपेक्षिक हैं । अतएव यह पृथक्त्वगुण युगपत् एक ही अनेक में नहीं रह सकता है "अनेकस्थो ह्यसौ गुणः " यह सिद्धांत गलत है क्योंकि जब यह पृथक्त्वगुण दो पृथक्त्ववान् पदार्थ से पृथक् है तब वे दोनों पदार्थ (द्रव्य, गुण) अपृथक् हो गये । अतः पृथक्त्व नाम का कोई गुण सिद्ध न होने से योगाभिमत पृथक्त्वकांत सिद्ध नहीं होता है । सार का सार - ये नैयायिक और वैशेषिक द्रव्य से गुण को पृथक् ही मान रहे हैं बड़े आश्चर्य की बात है कि यदि जीव से ज्ञान गुण अलग है तो जीव का अस्तित्व कैसा ? यदि अग्नि से उष्णता अलग ही है तो अग्नि का स्वभाव क्या रहा? समझ में नहीं आता है कि ये लोग समवाय को भी क्या समझते हैं ? क्या समवाय उष्णता को अलग से लेकर अग्नि में जोड़ता है यदि हाँ ! तो अग्नि में ही उष्णता को क्यों जोड़े अन्यत्र क्यों नहीं ? अतः जैनाचार्यों ने तो द्रव्य से गुण का तादात्म्य स्वीकार किया है और तादात्म्य को ही समवाय नाम दे दिया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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