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दशम परिच्छेद ज्ञान के अभाव लक्षण से बन्ध एवं ज्ञान से मोक्ष होता है इस एकान्त पक्ष का जैनाचार्य निराकरण करते हैं। सांख्य के एकांत पक्ष का निराकरण मिथ्याज्ञान से बन्ध एवं सम्यग्ज्ञान से मोक्ष होता है इस एकान्त का निराकरण । नैयायिक तत्त्वज्ञान से मोक्ष मानता है उसका निराकरण । बौद्ध अविद्या से बन्ध और विद्या से मोक्ष मानते हैं, आचार्य उनका भी निराकरण करते हैं । वृद्ध बौद्धों की मान्यता का भी जैनाचार्य निराकरण करते हैं । केवली के भी प्रकृति, प्रदेशबंध होते हैं ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वे बंध संसार के कारण न होने से अकार्यकारी हैं। नैयायिक कर्म को आत्मा का गुण कहते हैं, किन्तु जैनाचार्य उनका निराकरण करके कर्म को पौद्गलिक सिद्ध करते हैं । ईश्वर सृष्टि का कर्ता है इस नैयायिक की मान्यता का निराकरण करके जैनाचार्य सृष्टि को अनादि सिद्ध करते हैं। ईश्वर के साथ सृष्टि का अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध है ऐसा नैयायिक के द्वारा कथन होने पर जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं । योग ईश्वर को अनादिकाल से अशरीरी सिद्ध करना चाहता है, किन्तु जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं। आपका ईश्नर बुद्धिमान है पुनः निंद्य सृष्टि क्यों बनाता है ? इस प्रकार से जैनाचार्य यहाँ दोषारोपण करते हैं। भव्यत्व और अभव्यत्व का लक्षण स्वभाव तर्क का गोचर नहीं है आचार्य इसका समर्थन करते हैं । "तत्त्वज्ञान प्रमाण है" यह प्रमाण का लक्षण निर्दोष है। तत्त्वज्ञान को सर्वथा प्रमाण मानने पर अनेकान्त में विरोध आता है ऐसा कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं। सौगत स्मृति को प्रमाण नहीं मानता है किन्तु जैनाचार्य उसको प्रमाण सिद्ध कर रहे हैं । प्रत्यभिज्ञान भी एक पृथक् प्रमाण ही है ऐसा जैनाचार्य सिद्ध करते हैं । तर्कज्ञान भी पृथक प्रमाण ही है ऐसा जैनाचार्य सिद्ध करते हैं।
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