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इन्द्रियादि का ज्ञान भी परोक्ष सिद्ध नहीं होता है। चार्वाक शरीर को ही भोक्ता आत्मा मानता है, किंतु जैनाचार्य उस का निराकरण करते हैं । बौद्ध कहता है कि “संज्ञात्वात्" हेतु विरुद्ध है, जैनाचार्य उसका समाधान करते हैं । सांख्यादि के द्वारा परिकल्पित निरतिशय स्वभाव वाला एवं बौद्धाभिमत प्रतिक्षण भिन्न स्वभाव वाला जीव शब्द बाह्यादि कर सहित हो सकता है ऐसी शंका करने पर आचार्य कहते हैं। मायादि भ्रांत शब्दों से सत्य अर्थ नहीं कहा जाता है अतः जीव शब्द भी बाह्यार्थ सहित नहीं है ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं। मीमांसक "संज्ञात्वात्" हेतु को व्यभिचारी सिद्ध करना चाहता है किन्तु जैनाचार्य उसे निर्दोष सिद्ध कर रहे हैं। विज्ञानाद्वैतवाद का निराकरण विज्ञानाद्वैतवादी के प्रति जैनाचार्य बाह्य पदार्थ की सिद्धि कर रहे हैं। ज्ञान में ग्राह्य-ग्राह्यकाकार भेद वासना के भेद से ही है किन्तु बाह्य अर्थ के सद्भाव से नहीं है । ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं ।
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अष्टम परिच्छेद भाग्य से ही एकान्त से सभी कार्य होते हैं इस एकान्त मान्यता का जैनाचार्य परिहार करते हैं। यदि पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्धि होती है तब तो सभी प्राणियों में पुरुषार्थ है पुनः सभी के कार्यों की सिद्धि क्यों नहीं होती? भाग्य और पुरुषार्थ के अनेकांत को जैनाचार्य सिद्ध करते हैं ।
नवम परिच्छेद यदि एकान्त से दूसरों में दुःख उत्पन्न करने से पाप और सुख उत्पन्न करने से पुण्य होता है तो क्या दोष आते हैं सो दिखाते हैं। यदि एकान्त से स्वत: में दुःख उत्पन्न करने से पुण्य और सुख उत्पन्न करने से पाप होता है तो क्या दोष आते हैं सो बताते हैं । विशुद्धि और संक्लेश परिणाम ही पुण्य-पाप बंध में कारण है। विशुद्धि और संक्लेश का क्या लक्षण है ? ऐसा प्रश्न होने पर जैनाचार्य स्पष्ट करते हैं।
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