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अष्टसहस्री का आधारभूत
देवागमस्तोत्र
( प्रथम परिच्छेद ) देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥
भगवन् ! पंचकल्याणक में तव देवों का आगमन महान । केवलज्ञान प्रगट होने पर नभ में अधर गमन सुखदान ।। छत्र, चमर आदिक वैभव सब, मायावी में भी दिखते ।
अतः आप हम जैसों द्वारा, पूज्य-वंद्य नहिं हो सकते ॥१॥ अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥२॥
विग्रह आदि महोदय भगवन् ! तव अध्यात्म क्षुधादि रहित । बाह्य महोदय कुसुम वृष्टि गंधोदक आदिक देव रचित ।। दिव्य, सत्य ये वैभव फिर भी रागादिक युत सुरगण में ।
पाये जाते हैं हे जिनवर ! अतः आप नहिं पूज्य हमें ।।२।। तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः। सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेग्दुरुः ॥३॥
सभी मतों में सभी तीर्थकृत, के आगम में दिखे विरोध । सभी आप्त सच्चे परमेश्वर, नहिं हो सकते, अतः जिनेश ।। इन सब में से कोई एक ही, आप्त-सत्यगुरु हो सकता।
चित्-सर्वज्ञ देव परमात्मा, सत्त्वहितंकर जगभर्ता ॥३॥ दोषावरणयोहानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरंतर्मलक्षयः ॥४॥
किसी जीव में सर्व दोष अरु, आवरणों की हानि निःशेष । हो सकती है क्योंकि जगत् में, तरतमता से दिखे विशेष ।। रागादिक की हानि किन्हीं में, दिखती है कुछ अंशों से । जैसे हेतू से बाह्यांतर, मलक्षय होता स्वर्णों से ॥४॥
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