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प्रस्तावना
-डॉ. पं० लाल बहादुर शास्त्री-दिल्ली
अष्टसहस्री न्यायशास्त्र का एक महान ग्रन्थ है जिससे तर्क के आधार पर जिनोदित तत्वों का समर्थन करते हुए आचार्य विद्यानं दि ने एकान्तवादी (मिथ्या) मतों का पूर्णतया गहराई के साथ खण्डन किया है। तथा अपने स्याद्वाद सिद्धान्त का समर्थन करते हये अपनी स्याद्वादी मान्यताओं का पूर्ण रूप से समर्थन किया है। यह स्याद्वादी मान्यता कोई नवीन नहीं है, वैसे तो यह अनादि कालीन है क्योंकि जब जैनधर्म अनादिकाल से है तो उसके आधार पर स्थित जैनधर्म भी अनादिकालीन है परन्तु अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कालों के परिवर्तन से जैनधर्म (स्याद्वादी धर्म) में भी अभाव और सद्भाव रूप में परिवर्तन हुआ है । वर्तमान में यह अवपिणी काल चल रहा है। इस अवसर्पिणी काल का पहला काल सुषमासुषमा था उसके बाद सुषमा (२) सुषमासमा (३) दुषमा सुषमा (४) दुषमा (५) दुषमादुषमा (६) इस तरह ये अवसर्पिणी काल के ६ काल हैं जिनमें कम से आयु, काय, शक्ति
और मानसिक प्रवृत्तियों की क्रमशः घटोतरी होती जाती है। आजकल यह पांचवां काल "दुषमा" चल रहा हैजिसे कलि-काल (पाप का काल) भी कहा जाता है। इसके पहले चतुर्थ काल (दु:षमा सुषमा) था। इस काल के प्रारम्भ समय में और तृतीय सुषमादुषमा के अंत में तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ उत्पन्न हुये थे जिन्होंने तपःपुनीत सर्वज्ञ अवस्था में अपनी दिव्य केवलज्ञान शक्ति अर्थात् सर्वज्ञता द्वारा अनेकान्त धर्म का प्रतिपादन किया था।
भगवान् आदिनाथ ऋषभ के पुत्रों ने भी अपने समय में जैन दीक्षा ही धारण की थी। भगवान ऋषभ के पुत्र भरत की सन्तान में एक मारीच नाम का पुत्र था, जिसने जैन दीक्षा लेने के बाद उस दीक्षा से भ्रष्ट होकर अपना नया मत चलाया था और उसमें अनेक लोग उसका पालन करने लगे, उनमें भी पुनः विघटन होकर नये मतमतांतरों का प्रादुर्भाव हुआ। इस तरह जैसे-जैसे काल व्यतीत होता गया वैसे-वैसे ही मतमतांतरों की वृद्धि होती गई। इस तरह ३६३ पाखण्ड पनप गये। जिनका प्रचलन भगवान महावीर के समय तक रहा और आज तक भी चला आ रहा है, उन्हीं पाखण्डों में सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, जैमिनि, चार्वाक, प्रभाकर, मीमांसक, ब्रह्माद्वैत, चिन्ताद्वैत, ज्ञानाद्वैत, सौगत (बौद्ध) आदि अनेक मतमतांतरों का जैनाचार्यों ने खण्डन किया है। प्रस्तुत ग्रंथ अष्टसहस्री में इन्हीं मतों का खण्डन है। जिसके रचयिता आचार्य विद्यानंदि है। दिगम्बर जैनधर्म में यों तो तर्कशास्त्र के अनेक ग्रन्थ हैं पर अष्टसहस्री अपने आप में एक महान एवं अद्वितीय ग्रंथ है। इस ग्रन्थ का मूलाधार यद्यपि देवागम अद्वितीय ग्रन्थ है। जिसकी रचना आचार्य समंतभद्र ने की है। यह देवागम स्तोत्र भी अपने आप में अपूर्व है। स्तोत्रों में भगवान की भक्ति ही की जाती है और भक्ति का रूप प्रशंसात्मक ही होता है। उसका उद्बोधन अनेक प्रकार के अलंकारों से किया जाता है। भक्तामर स्तोत्र मन्त्र तन्त्रों से भरपूर है परन्तु अधिकतर श्लोक अलंकारो से ही भरपूर हैं। जबकि देवागम स्तोत्र में प्रारम्भ से ही भगवान् की परीक्षा की गई है । उसका पहला श्लोक इस प्रकार है:
देवागमनभोयान-चामरादिविभूतयः मायाविष्वपि दश्यंते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥
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