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________________ सन् १९७५ में दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने हस्तिनापुर में संस्था के नाम से एक भूमि खरीदकर निर्माण कार्य प्रारम्भ किया जिसमें प्रथमचरण के रूप में बीचोंबीच का ८४ फुट ऊँचा सुमेरूपर्वत सन् १९७६ में बनकर तैयार हो गया उसके १६ जिनमदिरों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा २६ अप्रैल से ३ मई १९७६ तक सम्पन्न हई । अब तो अजैन बन्धु भी इस पर्वत पर कुतुबमीनार की परिकल्पना करके चढ़ने लगे, किन्तु अनायास ही भगवान के सामने उन सबका भी मस्तक नत हो जाता था। सुमेरू पर्वत एवं ज्ञानमती माताजी का प्रभाव था कि निर्माण कार्य आगे बढ़ता गया और ६ वर्ष की अल्प अवधि में पूरा जम्बूद्वीप बन कर तैयार हो गया। इसी बीच ४ जन १९८२ को १० माताजी की प्रेरणा से प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने दिल्ली के लाल किला मैदान से जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति का प्रवर्तन किया. जिसके द्वारा १०४५ दिनों तक सम्पूर्ण भारत में जम्बूद्वीप एवं भगवान महावीर के सिद्धान्तों का खूब प्रसार हुमा तथा अन्त में २८ अप्रैल १९८५ को हस्तिनापुर में समापन समारोह के साथ रक्षामन्त्री श्री पी. वी. नरसिंह राव, एवं सांसद श्री जे. के. जैन ने यहीं पर उस ज्ञानज्योति की अखण्ड स्थापना की जो प्रत्येक प्राणी को अहनिश ज्ञान का सन्देश प्रदान करती है। यही अवसर था जम्बूद्वीप में विराजमान समस्त जिन बिम्बों की प्राण प्रतिष्ठा का। अतः २८ अप्रैल से २ मई १९८५ तक जम्बूद्वीप की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। अब तो हस्तिनापुर नगरी सचमुच में भगवान् शांतिनाथ का युग दर्शा रही है जिसे कभी राजधानी के रूप में माना जाता था । किन्तु मध्यकाल में इसकी गरिमा मात्र पुराणों तक सीमित हो गई थी, वर्तमान दशक में इसकी उन्नति देखकर कविवर द्यानतराय की ये पंक्तियाँ स्मृत हो आती हैं गुरू की महिमा वरणी न जाय, गुरू नाम जपो मनवचनकाय ॥ पू० ज्ञानमती माताजी के चरण पड़ते ही यहां की रज पुनः चंदन बन गई और वीणा के मूक तार पुनः झंकृत होकर पूर्व इतिहास की गाथा गाने लगे अरे ! यह तो वही भूमि है जहाँ आदि तीर्थकर वृषभदेव को प्रथम बार इक्षुरस का आहार राजा श्रेयांस ने दिया था और स्वप्न में सुमेरूपर्वत देखा था । शायद इसीलिए ऊंचे सुमेरू पर्वत का निर्माण यहां की पवित्र स्थली पर हुआ है । एक ही नहीं न जाने कितने इतिहास इस भूमि से जुड़े हैं । देखिए न ! रक्षाबंधन पर्व, महाभारत की कथा, मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा का इतिहास, द्रौपदी के शील का महत्व, राजा. अशोक और रोहिणी का संबंध, अभिनंदन आदि पांच सौ मुनियों का उपसर्ग, गजकुमार मुनि का उपसर्ग तथा भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ के चार-चार कल्याणक का सौभाग्य यहाँ की माटी को ही प्राप्त हआ था उसी का पुनरूद्वार किया एक परमतपस्विनी गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने । अपनी निन्दा प्रशंसा से दूर, आत्महित और जनहित की भावना से ओत-प्रोत, रत्नत्रय की इस साधिका के पास न जाने कितने लोग आकर प्रतिदिन उनसे अपना कष्ट कहकर शांति प्राप्त करते हैं। पूज्य माताजी को दैनिक चर्या : ___ कर्मभूमि में दिन और रात का विभाजन सूर्य और चांद के इशारों पर होता है क्योंकि यहाँ की प्रकृति ने इसे ही स्वीकार किया है । मनुष्य सुबह से शाम तक अपनी समस्याओं से जूझता है पुनः थककर निद्रा की गोद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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