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________________ ( ४१ ) की एवं सैकड़ों संस्कृत स्तुतियाँ आदि बनाई । जहाँ अष्टसहस्री जैसे क्लिष्टतम ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद किया, अध्यात्मग्रन्थ नियमसार पर स्याद्वादचंद्रिका नामक संस्कृत टीका लिखी है वहीं बालोपयोगी बालविकास के ४ भाग तथा उपन्यास शैली में अनेकों कथानक भी लिखे हैं । जिनमें से लगभग १०० ग्रन्थों का लाखों की संख्या में प्रकाशन भी हो चुका है । निवृत्ति मार्ग में रहते हुए भक्तिमार्ग भी आपसे अछूता नहीं रहा । उसी का प्रतिफल आज हम देख रहे हैं कि सारे हिन्दुस्तान में इन्द्रध्वज और कल्पद्रुम विधानों की धूम मची हुई है । इसी प्रकार से सर्वतोभद्र महाविधान, ती लोक विधान, त्रैलोक्य विधान, तीसचौबीसी तथा पंचमेरू आदि विधान पू० माताजी की कलम से लिखे गए हैं । उनका भी हस्तिनापुर से शुभारंभ हो चुका है । भक्ति में आदर नहीं रखने वाले कितने ही व्यक्ति इन विधानों को सुनकर भक्तिक बन जाते हैं तथा भक्तिरस में डूब कर प्रत्येक प्राणी कुछ क्षणों के लिए तो निज आत्मा में निमग्न हो ही जाते हैं । धर्म का गूढ़ से गूढ़ रहस्य इन विधानों की जयमालाओं में भरा हुआ है । आत्मरसिक मुमुक्षु के लिए किसी भी विधान की एक पुस्तक ही पर्याप्त होती है जिसके द्वारा वे चारों अनुयोगों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । इस प्रकार से ज्ञानमती माताजी ने अपने जीवन में साहित्यसृजन का नवीन कार्य किया है । उनके मार्ग का अनुसरण करते हुए आज तो कई आयिकाओं ने ग्रन्थ निर्माण की ओर अपने कदम बढ़ाए हैं जो नारीजाति के लिए गौरव का विषय है । एककवि ने कहा भी है--- जो बतलाते नारी जीवन लगता मधुरस की लाली है । वह त्याग तपस्या क्या जाने कोमल फूलों की डाली है ॥ जो कहते योगों में नारी नर के समान कब होती है । ऐसे लोगों को ज्ञानमती का जीवन एक चुनौती है ॥ जम्बूद्वीप निर्माण एवं ज्ञानज्योति प्रवर्तन - सन् १९६५ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने ५ आर्यिकाओं सहित आर्यिका संघ का चातुर्मास कर्नाटक प्रान्त के श्रवणबेलगोला में किया। भगवान् बाहुबली की अमरकृति से वहाँ का इतिहास सर्वप्रसिद्ध है । उस वीतरागता छवि को हृदयान्तरित करने हेतु पू० माताजी ने एक बार 15 दिन तक मौनपूर्वक विध्यगिरि पर्वत पर ध्यान करने का संकल्प किया। उसी ध्यान की श्रृंखला में एकदिन, सम्पूर्ण अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना हुई, चित्त यात्रा ने जम्बूद्वीप को प्रधानता दी । ध्यान की क्रिया सम्पन्न होने के पश्चात् जैनागम का आलोकन होने लगा । मन में प्रश्न उभरता कि क्या ऐसा अतिशय सम्पन्न स्थान कहीं है ? हाँ, प्रश्नवाचक चिन्ह उत्तर रूप में परिवर्तित हुआ, खोज करते-करते करणानुयोग के तिलोयपण्णत्ति एवं त्रिलोकसार में सारा ज्यों का त्यों वर्णन देखने को मिला । माताजी की प्रसन्नता का पार नहीं क्योंकि उनका ध्यान आज सार्थक साकार रूप ले चुका था । इसे तो भगवान् बाहुबलि की देन, ध्यान की एकाग्रता और पूर्वभव के संस्कार ही मानना पड़ेगा क्योंकि इससे पूर्व माताजी को कोई ऐसा विकल्प नहीं था । पू० माताजी के मुखारविन्द से इस रचना का विवरण सुनकर सर्वप्रथम तो श्रवणबेलगोल के पीठाधीश भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी ने बहुत प्रसन्नता व्यक्त की । पुनः कई स्थानों पर इस निर्माण की चर्चा आई किन्तु होनहार को कोई टाल नहीं सकता, माताजी ने उत्तर प्रान्त में आकर स्थान चयन किया - हस्तिनापुर पावन तीथेक्षेत्र का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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