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________________ ४०४ ] अष्टसहस्री [ कारिका २२ पुनरेक एव येन प्रथमभङ्गादेवानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रतिपत्तेः शेषधर्मानामानर्थक्यं प्रसज्येत । न च धर्मा धर्मिणोनर्थान्तरभूता एव, नाप्यर्थान्तरमेव येन तत्पक्षभाविदूषणप्रसङ्गः', कथंचिद्भदाभेदात्मकत्वाद्धर्मिधर्माणां तदात्मकवस्तुनो जात्यन्तरत्वाच्चित्राकारैकसंवेदनवत्', तत्र विरोधादेरप्यनवकाशात् । केवलमङ्गित्वे प्रधानत्वेस्तित्वादिषु धर्मेष्वन्यतमस्यान्तस्य धर्मस्य, शेषान्तानां स्याच्छब्दसूचितान्यधर्माणां तदङ्गता तद्गुणभावः, तथा प्रतिपत्तुर्विवक्षाप्रवृत्तेरथित्वविशेषात् । ततो भङ्गान्तरप्रयोगो युक्त एव, प्रतिधर्म धर्मिणः कथंचित्स्वभावभेदोपपत्तेः । _ [ मिणः प्रतिधर्म यदि स्वभावभेदो न भवेत्तहि वस्तुव्यवस्थैव न स्यात् ] यदि पुनः' प्रत्युपाधि परमार्थतः स्वभावभेदो'' न स्यात्तदा दृष्टेभिहिते वा अनंतधर्मात्मक वस्तु का ज्ञान होने से शेष धर्मों में अनर्थकता का प्रसंग आ जावे । अर्थात् शेष धर्म अनर्थक नहीं हैं। सभी धर्म धर्मी से अनर्थांत रभूत-सर्वथा अभिन्न ही हों, ऐसा भी नहीं है । धर्मी से वह धर्म सर्वथा भिन्न भी नहीं है कि जिससे अभिन्न और भिन्न पक्ष में दिये गये दूषणों का प्रसंग आ सके । अर्थात् आप बौद्धों ने जो भिन्न-अभिन्न पक्ष में दोष दिये हैं, वे हमारे यहाँ लागू नहीं होते हैं क्योंकि हमारे यहाँ धर्म और धर्मी कथंचित् भेदाभेदात्मक हैं और भेदाभेदात्मक वस्तु ही एक जात्यंतररूप ही हैं, जैसे कि चित्रकाररूप एक संवेदनज्ञान जात्यंतररूप ही है। एवं उस भेदाभेदात्मक वस्तु में विरोध, वैयधिकरण्यादि दोषों को भी अवकाश नहीं है। - अनेक अस्तित्वादि धर्मों में से केवल-मात्र किसी एक धर्म को प्रधानरूप करने पर "शेषान्तानां" स्यात्शब्द से सूचित अन्य धर्मों को अप्रधानता-गौणता आ जाती है क्योंकि गौण-प्रधानभाव प्रकार से ज्ञाता की विवक्षा की प्रवृत्ति होती हैं एवं अर्थित्व विशेष है। अर्थात् ज्ञाता मनुष्य जिस धर्म को कहना या समझना चाहता है वही धर्म मुख्य है शेष धर्म गौण हैं। ___इसलिये प्रधान गौणरूप से भंगांतर का प्रयोग युक्त ही है। क्योंकि धर्म-धर्म के प्रति धर्मी में कथंचित् स्वभावभेद पाया जाता है। [ धर्मी के प्रत्येक धर्म में यदि स्वभावभेद न होवे तब तो वस्तु व्यवस्था ही नहीं बनेगी ] यदि पुनः उपाधि-उपाधि के प्रति परमार्थ से स्वभावभेद न होवे तब तो दृष्ट में (प्रत्यक्ष से 1 येन केन भिन्नाभिन्नपक्षभाविदूषणं प्रसजत्यपितु न केनापि ! (दि० प्र०) 2 द्वन्द्वः । (दि० प्र०) 3 ता धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो भवतु । (दि० प्र०) 4 धर्ममिणां भेदाभेदात्मकत्वे कथञ्चिद्रूपत्वे सति विरोधादेर्दोषस्यानवतारात् । (दि० प्र०) 5 धर्माणाम् । (ब्या० प्र०) 6 कुतः । (ब्या० प्र०) 7 प्रयोजनवशात् । (दि० प्र०) 8 अन्यथा शब्दार्थों यदि पुनरित्यादि । (ब्या० प्र०) 9 प्रतिधर्मम् । (दि० प्र०) 10 प्रतिविशेषणम् । (दि० प्र०) 11 धर्मिणः । (ब्या०प्र०) 12 शब्देनोक्ते । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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