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________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ४०३ संभवात्तेन व्यभिचाराभावात् साधनस्य । न हि स्वधर्म्यपेक्षया यो धर्मः सत्त्वादिः स एव स्वधर्मान्तरापेक्षो' धर्मी न स्याद्यतोनन्तधर्मा न भवेत् । न चैवमनवस्थानं, अनाद्यनन्तत्वाद् धर्मधर्मस्वभावभेदव्यवहारस्य ' वलयवदभव्यसंसारवद्वा । न च धर्मिणो जीवादेरपोध्रियमाणो धर्मः प्रमेयः, तस्य नयविशेष विषयतया प्रमाणाविषयत्वात् । इति न तेनानेकान्तः । एतेन प्रमेयत्वस्य धर्मस्य नयविषयस्य' नेयत्वेनाप्रमेयत्वात्तेन व्यभिचारो निरस्तः । प्रमाणविषयस्य तु प्रमेयत्वस्य हेतोः स्वधर्मापेक्षयानन्तधर्मत्वेन धर्मित्वात्पक्षत्वेपि न हेतुत्वव्याघातः, स्वपरानन्तधर्मत्वे साध्येन्यथानुपपत्तिसद्भावात् । ततोनन्तधर्मा धर्मी' सिद्ध्यत्येव । तस्य धर्मे धर्मेतित्वाद भिन्न एवार्थः प्रयोजनं विधानादिः प्रवृत्त्यादिव तदज्ञानविच्छित्तिर्वा न 9 सत्त्वादि धर्म हैं वे स्वधर्मांतर की अपेक्षा से धर्मी न होवें, ऐसा तो है नहीं, जिससे कि एक धर्म भी अनंतधर्मात्मक न हो सके अर्थात् इस अपेक्षा से एक धर्म भी अनंतधर्मात्मक सिद्ध है । इस प्रकार से धर्म को ही अनंतधर्मात्मक धर्मी प्रतिपादित करने से अनवस्था दोष भी नहीं आता है, क्योंकि धर्म और धर्मी के स्वभाव का भेदव्यवहार वलय के समान अथवा अभव्यजीव के संसार के समान अनादि और अनंत है । अर्थात् जैसे अभव्यजीवों के संसार का आदि अंत नहीं है एवं भ्रमण काल में जो वलय का पूर्वभाग है, वही अपरभाग भी हो जाता है । धर्मी जीवादि से अपोद्धियमान - पृथक् किया गया प्रमेय, धर्म नहीं हो ऐसी बात नहीं है, किंतु वह धर्म नयविशेष का विषय होने से प्रमाण का विषय नहीं है, इसलिये उस प्रमेय धर्म के साथ अनेकांत दोष नहीं आता है । इसी कथन से नय का विषयभूत जो प्रमेयत्वधर्म है, उसे नय के विषयरूप से प्राप्त करने पर वही अप्रमेय है अर्थात् प्रमाण का अविषय है । इसलिये उस धर्म के साथ व्यभिचार का खण्डन कर दिया गया है, किन्तु जब प्रमाण के विषयरूप प्रमेयत्व को हेतु बनाते हैं, तब वह अपने धर्म की अपेक्षा से अनंतधर्मरूप से धर्मी बन जाता है, और तब उस हेतु को स्वयं पक्षरूप मान लेने पर भी उसको हेतुपने का व्याघात नहीं होता है, क्योंकि स्व प्रमेय और पर- जीवादि इन स्वपर के अनंतधर्म को साध्य करने पर अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु का सद्भाव है । अर्थात् - स्वपर को अनंतधर्मात्मक न मानने पर प्रमेयत्व हेतु ही नहीं बन सकेगा । इसलिये धर्मी अनंतधर्मात्मक सिद्ध ही हो जाता है । उस धर्मी के अस्तित्वादि धर्म-धर्म में भिन्न ही अर्थ, प्रयोजन विधानादि हैं अथवा प्रवृत्ति आदि या उसके अज्ञान की निवृत्ति आदि भी हैं, न कि पुनः एक ही प्रयोजन है कि जिससे प्रथमभंग से ही 1 प्रतिषेद्ध्याविनाभावित्वविशेषणत्वादि। ( दि० प्र०) 2 ता । ततश्च नानवस्थादूषणमिति भाव: । ( दि० प्र० ) 5 जीवादि: । ( दि० प्र०) कार्यकारणात् । ( दि० प्र०) 3 समय विषयस्य इति पा० । ( दि० प्र०) 4 पक्षान्तःपातित्वे सत्यपि । ( दि० प्र० ) 6 जीवादेः धर्मिणः । ( दि० प्र० ) 7 प्रयोजनविधानात् इति पा० । 8 निवृत्यादि: । ( दि० प्र० ) 9 येन केन इत्यर्थे अपितु न केनापि । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only ( दि० प्र० ) www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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