SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तित्व का अविनाभावी नास्तित्व ] प्रथम परिच्छेद [ ३७१ निर्णयस्य' 2 भावस्वभावासंस्पर्शिनः सर्वथा वस्तुतत्त्वापरिच्छेदादिदमित्थमेवेति' स्वयमे - कान्तानुपपत्तेः । सो 'चक्षुरादिज्ञानाद्वस्तुतत्त्वमध्यवस्यन्सकल विकल्पाध्यवसेयामन्यव्यावृत्ति सर्वथानात्मिकामाचक्षाणः कथमिदमेव वस्तुतत्त्वमित्थमेवेति वा स्वयं प्रतिपद्येतान्यं वा प्रतिपादयेदिति सविस्मयं नश्चेतः । [ प्रमेयत्वादितो वैधम्र्म्यं विद्यते एवेति जैनाचार्याः समर्थयंति ] अतोयं भावः स्वभावभेदान्विधिप्रतिषेधविषयान्बिभ्राणः प्रत्यक्षेतर प्रमाणसमधिगतलक्षणः प्रतीयेत प्रमेय : 10, खपुष्पादयस्त्वप्रमेया इति प्रमेयत्वादिहेतावपि व्यतिरेको" विद्यते एव । सौगत - अन्य से व्यावृत्ति ( अगौ: व्यावृत्तिगौंः ) यह अनात्मिका - नि:स्वभाव (असत्य) ही है । जैन - आप सौगत ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि चक्षु आदि ज्ञान जो कि निर्व्यवसायात्मक हैं, स्वयं अभूत (अनुत्पन्न ज्ञान) के समान हैं। विकल्प ज्ञान तो अपरमार्थभूत होने से भावस्वभाव ( स्वलक्षण) का संस्पर्श भी नहीं करता है, अत: आपके यहाँ सर्वथा ही वस्तुतत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकने से यह इस प्रकार “क्षणिक ही है" ऐसे उस एकांततत्त्व का आप बौद्ध को भी स्वयं निर्णय नहीं हो सकता है। चक्षु आदि ज्ञान से वस्तुतत्त्व को निश्चित जानते हुये सकल विकल्पज्ञान से अध्यवसेय -- जानने योग्य अन्य व्यावृत्ति को सर्वथा अनात्मिका - निःस्वभावरूप कहते हुये आप बौद्ध "यह ही वस्तुतत्त्व है" अथवा इस प्रकार से "क्षणिक" ही है, ऐसा स्वयं भी कैसे समझेंगे ? अथवा अन्य शिष्यों को भी कैसे प्रतिपादित करेंगे ? इस प्रकार से हमारे मन में बहुत ही आश्चर्य हो रहा है । [ प्रमेयत्व आदि हेतुओं में बंधर्म्य है ही है, इस बात का जैनाचार्य समर्थन करते हैं ] इसलिये यह भाव - पदार्थ विधि और प्रतिषेध के विषयभूत स्वभावभेद को धारण करता हुआ प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से जाना गया है लक्षण जिसका, ऐसा यही प्रमेयरूप प्रतीति में आ रहा है । अत: “आकाश कुसुम आदि तो अप्रमेय हैं" इस प्रकार से प्रमेयत्व आदि हेतुओं में व्यतिरेक है ही है । बौद्ध - सभी वस्तु को परिणामी आदि सिद्ध करने में सपक्ष में अन्वय ही सम्भव नहीं है । अर्थात् "सर्वे पदार्थाः परिणामिनः प्रमेयत्वात्" इस प्रकार से प्रमेयत्व हेतु अथवा और किसी भी हेतु द्वारा जब समस्त पदार्थों को पक्ष बनाकर उनमें परिणामीपना सिद्ध किया जाता है, तब हेतु का 1 सविकल्पक ज्ञानस्य । विकल्पकस्य । ( दि० प्र० ) 2 क्षणिकलक्षणपदार्थस्वभावस्याग्राहिणः । ( दि० प्र० ) 3 निर्णयविषयभूत व्यावृत्तेरनात्मकत्वादेव वस्तु स्वभावासंस्पर्शित्वं निर्णयस्य । ( दि० प्र०) 4 क्षणिकस्वरूपापरिज्ञानात् । ( दि० प्र० ) 5 सौगत: । ( दि० प्र० ) 6 निर्विकल्पकात् । ( दि० प्र०) 7 अनिश्चिन्वन् । अजानन् । सविकल्पकज्ञाननिश्चेयमन्यापोहं सर्वथाऽवस्तुभूतं ब्रुवाणः । ( दि० प्र० ) 8 निःस्वभावम् । ( दि० प्र० ) 9 शक्तिः । ( दि० प्र०) 10] सन् । ( व्या० प्र० ) 11 विपक्षाव्यावृत्तिः । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy