SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विभाजन करते हए ५४ सारीश बनाए, जिनकी सहायता से प्रारम्भ में थोड़ा पढ़कर भी बहुत कुछ समझा जा सकता है। मैंने तथा संघस्थ अन्य छात्र-छात्राओं ने इन्हीं सारांशों के आधार से शास्त्री एवं न्यायतीर्थ की परीक्षाएँ दीं। बहुत सी बातों को एक सूत्र में गभित करके कहना अथवा एक सूत्र पर एक ग्रंथ तैयार कर देना ये दोनों कार्य अपने-अपने स्थान पर विशेष महत्व रखते हैं। एक और हस्तलिखित प्रति की उपलब्धि जब प्रथम भाग के ३०० पृष्ठ छप गये तब दि० जैन नया मन्दिर धर्मपुरा, दिल्ली के प्राचीन शास्त्र भंडार से अष्टसहस्री की एक और हस्तलिखित प्रति श्री पन्नालाल जैन अग्रवाल (किताब वालों) के सौजन्य से प्राप्त हुई । उसमें विस्तार पूर्वक टिप्पणियां दी गई हैं। इस प्रति से भी अधिकांश टिप्पणियाँ एवं पाठांतर लिये गये हैं उनको अलग से दिखाने के लिये दिल्ली प्रति =दि० प्र० ऐसा संकेत उनके आगे किया है। पूज्य माताजी की अपार क्षमता एवं कार्य कुशलता नीतिकारों ने कार्य करने वाले तीन प्रकार के बतलाये हैं । एक तो वे होते हैं जो कठिनता आदि कारणों से कार्य को करते ही नहीं हैं। दूसरे वे होते हैं जो कि विघ्न बाधाएँ आने पर प्रारम्भ किये हुए कार्य को मध्य में ही अधूरा छोड़ देते हैं । तीसरे वे होते हैं जो विघ्न बाधाओं की परवाह न करके अनेक कष्टों को सहन करते हुए कार्य को पूर्ण करके ही छोड़ते हैं अथवा पूर्ण करने में संलग्न रहते हैं । पू० माताजी तीसरे प्रकार के व्यक्तियों में से एक हैं जिन्होंने अपने जीवन में कभी भी यह नहीं सोचा कि यह काम नहीं हो सकता है । सदैव सोचे हुए कार्य आत्मीक बल से पूर्ण किये । आपका मनोबल अपार है। उत्साह हीनता को आपके जीवन में प्रश्रय नहीं मिला। कर्मठता ही आपके जीवन का ध्येय रहा । इसी के फलस्वरूप यह अष्टसहस्री ग्रन्थ अनुवादित होकर पाठकों के हाथों में पहुँच सका है। प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता इस अष्टसहली की महानता के विषय में स्व० पं० श्री जुगलकिशोर मुखत्यार द्वारा लिखित देवागम अपरनाम भाप्तमीमांसा नामक पुस्तक की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है--"एक बार खुर्जा के सेठ पं० मेवाराम जी ने बतलाया कि जर्मनी के एक विद्वान् ने उनसे कहा कि-"जिसने अष्टसहस्री नहीं पढ़ी वह जैनी नहीं और जो अष्टसहस्री पढ़कर जैनी नहीं बना उसने अष्टसहस्री को पढ़ा नहीं। समझा ही नहीं।" यह कितना महत्वपूर्ण वाक्य है । एक अनुभवी विद्वान् के मुख से निकला हुआ यह वाक्य इस अष्टसहस्री ग्रन्थ के गौरव को कितना अधिक स्थापित करता है । सचमुच अष्टसहस्त्री ऐसी ही एक अपूर्वकृति है । खेद है कि आज तक ऐसी महत्वपूर्ण कृति का कोई हिन्दी अनुवाद गौरव के अनुरूप होकर प्रकाशित नहीं हो सका।" काश ! यदि आज पं० जुगलकिशोर जी मुखत्यार होते तो उन्हें इस अनुवादित अन्य को देखकर कितनी प्रसन्नता होती। इस महान् ग्रन्थ की महत्ता को स्वयं आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने द्वितीय अध्याय के मंगलाचरण में इस रूप में लिखा है श्रोतव्याष्टसहस्रीश्रुतैः किमन्येः सहस्र संख्यानैः । विज्ञायेत ययेव स्वसमयपरसमय सद्भावः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy