SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2 ३५० ] अष्टसहस्री [ कारिका १६ दिति साधनवचनेन नित्यत्वसमारोपच्यवच्छेद ! एव स्वलक्षणस्यानित्यत्वसिद्धिः 2 । अतो न तस्यानर्थक्यमिति चेत्कथमित्थं सर्वथान्यापोहोर्थः समर्थ्यते, स्वलक्षणक्षणक्षयस्य विधानात् । [ बौद्धेनान्यापोहोऽर्थः समर्थ्यते तस्य विचारः ] दृश्यविकल्प्ययोः स्वलक्षण सामान्ययोरेकत्वाध्यवसायात् ' तत्क्षणक्षयस्य विधिः, न पुनर्वस्तुनः सर्वथा विकल्पाभिधानयोर्वस्तुसंस्पर्शाभावादिति चेन्न, स्वलक्षणसामान्ययोरेकत्वाध्यवसायिना विकल्पेन स्वलक्षणस्याग्रहणात्, अगृहीतेन सह सामान्यस्यैकत्वाध्यवसा' (या) संभवात्, अन्यथातिप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षतः 7 प्रमितेन स्वलक्षणेन तस्यैकत्वाध्यवसानमिति चेन्न - वेवं विकल्पाभिधानयोर्वस्तुसंस्पर्शाभावे स्वलक्षणदर्शन स्याकृत निर्णयस्य " " वस्तुसन्निधेर 10 जैन - तो फिर इस प्रकार से आप सर्वथा अन्यापोह अर्थ का समर्थन कंसे करते हैं ? क्योंकि स्वलक्षण का क्षण में क्षय होना भी तो शब्द के द्वारा ही कहा जाता है अर्थात् वह तो विधिरूप से हो शब्द का विषय है निषेधरूप अन्यापोह से नहीं । [ बौद्ध अन्यापोह अर्थ का समर्थन करते हैं उस पर विचार ] सौगत - दृश्य और विकल्परूप स्वलक्षण और सामान्य में एकत्व का अध्यवसाय होने से उस क्षण क्षय की विधि होती है, न कि पुनः वस्तुभूत स्वलक्षणरूप की, अतः अन्यापोह अर्थ का ही समर्थन हो जाता है, क्योंकि सर्वथा विकल्पज्ञान और शब्द ये दोनों वस्तु का स्पर्श ही नहीं करते हैं । जैन - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वलक्षण और सामान्य में एकत्व का अध्यवसाय करने वाला विकल्पज्ञान स्वलक्षण को ग्रहण ही नहीं करता है, कारण अगृहीत ( स्वलक्षण) के साथ सामान्य ( विकल्प्य - अन्यापोह लक्षण ) में एकत्व का अध्यवसाय ही असम्भव है । अर्थात् स्वलक्षण तो अगृहीत है और सामा य गृहीत है पुनः उन दोनों में एकत्व का अध्यवसाय कैसे हो सकेगा ? अन्यथा अतिप्रसंग दोष भी आ जावेगा अर्थात् तीन प्रकार के विप्रकृष्ट और अविप्रकृष्ट में भी एकत्व का अध्यवसाय मानना पड़ेगा किन्तु ऐसा तो आप मानते नहीं हैं । सौगत- - प्रत्यक्ष से जाने गये स्वलक्षण के द्वारा उस सामान्य - विकल्प्य में एकत्व का अध्यवसाय हो सकता है । जैन - तब तो इस प्रकार से विकल्प ज्ञान और शब्द में वस्तु के स्पर्श का अभाव होने पर नहीं किया है निर्णय जिसका, ऐसे स्वलक्षण दर्शन और वस्तु की सन्निधि में समानता के होने से किसके 1 वा विभक्ती । (दि० प्र० ) 2 साधनवचनस्य । ( दि० प्र० ) 3 दृश्य एव समनन्तरसमय एव विकल्पोत्पत्ति सद्भावात् । (ब्या० प्र०) 4 सविकल्पज्ञानशब्दयोः वस्तुसंस्पर्शनस्याभावोस्ति । ( दि० प्र० ) 5 स्वलक्षणेन । ( दि० प्र० ) 6 सामान्यैकत्वाध्यवसानाऽसंभवात् । इति पा० । ( दि० प्र०, व्या० प्र० ) 7 सोगत: । ( दि० प्र०) 8 निर्विकल्पक - प्रत्यक्षविज्ञानेन । ( व्या० प्र०) प्रत्यक्षप्रमाणान्निश्चितेन । ( दि० प्र० ) 9 प्रत्यक्षस्य । ( दि० प्र० ) 10 वस्तुनि | (दि० प्र० ) 11 वस्तुना सह इन्द्रियस्य सन्निकर्षानिर्विकल्पक प्रत्यक्षस्य न विशेष इति भावः । ( व्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy