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________________ शेषभंग की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ ३४६ त्रिरूपलिङ्गप्रकाशकं', न ततोन्यद्वचनं, तस्य विवक्षामात्रेपि संभावनाया' एवोपगमादिति चेन्न, तस्याप्यन्यापोहमात्रार्थत्वात् 'अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते' इति वचनात्, सत्यपि च साधनवचनेन नित्यत्वसमारोपव्यवच्छेदे [देऽपि] स्वलक्षणस्यानित्यत्वासिद्धौ साधनवचनानर्थक्यात् । न 'शब्दस्य परार्थानुमानरूपस्य विकल्पस्य वा स्वार्थानुमानज्ञानरूपस्य सर्वथान्यापोहोर्थः श्रेयान् । यत्सत्तत्सर्वमनित्यं नित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधा व्यावृत्त करके अर्थ का बोध होवे प्रत्युत् जो शब्द कहा जाता है, स्पष्टतया पहले उसी का विधिरूप से बोध होता है अन्य के निषेधरूप से नहीं। ___ सौगत-साधनवचन ही त्रिरूप लिंग के प्रकाशक हैं, उससे भिन्न अन्य वचन नहीं अर्थात् "यत्सत्तत्सर्वं क्षणिक, घटमानय” इत्यादि वचन नहीं। त्रिरूप लिंग से भिन्न नैयायिक के द्वारा स्वीकृत पंचरूप लिंग है, उस पंचरूप लिंग से व्यावृत्त होकर ही त्रिरूप लिंग शब्द अन्यापोहरूप से अपने अर्थ का प्रकाशक है। एवं उससे भिन्न अन्य वचन अन्यापोहरूप नहीं है। उस अन्य वचन की विवक्षा मात्र में भी सम्भावना ही स्वीकृत की गई है। इसीलिये सभी शब्द का अर्थ अन्यापोह नहीं है, यह सिद्ध साधन है, क्योंकि साधन वचन को ही हमने अन्यापोह का विषय माना है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि वह भी अन्यापोह मात्र अर्थ को हो विषय करता है। कहा भी है "अपोहः शब्दलिंगाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते" अर्थात् शब्द और लिंग से अपोह-रहित वस्तु (स्वलक्षण) विधिरूप से नहीं कही जाती है । साधन वचन के द्वारा नित्यत्व के समारोप का व्यवच्छेद होने पर भी आपका स्वलक्षण अनित्य है, यह बात भी किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकेगी, तब पुन: आपके साधन वचन ही अनर्थक हो जावेंगे। क्योंकि परार्थानुमानरूप शब्द का अथवा स्वार्थानुमानरूप विकल्प का सर्वथा अन्यापोहरूप ही अर्थ करना श्रेयस्कर नहीं है । सौगत-"जो सत् है, वह सभी अनित्य है" क्योंकि नित्य में कम से अथवा युगपत् अर्थक्रिया का विरोध है, इस प्रकार के साधन वचन से नित्यत्व में समारोप-संशय आदि का व्यवच्छेदनिराकरण होना ही स्वलक्षण के अनित्य की सिद्धि है । इसलिये वे साधन वचन व्यर्थ नहीं हैं। 1 अन्यत्तत्सर्वमप्रकृत्या । (दि० प्र०) 2 कल्पनायाः । (दि० प्र०) 3 साधनवचनस्यापि शब्दात् न केवलमन्यद्वचनस्य । अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यामुच्यते न विधिना वस्तु ताभ्यामुच्यत इति भावः । (दि० प्र०) 4 तत्कथमुच्यत इति चेद्विधिना। शब्दलिङ्गाभ्यामपोह उच्यते न तु वस्तूच्यते । निर्विकल्पकदर्शनेन सन्मात्रग्राहकेण वस्तुसिद्धम् । (दि० प्र०) 5 कृत्वा । (दि० प्र०) 6 स्याद्वादी वदति, साधनवचनं वस्तुनो नित्यत्वं निराकरोति क्षणिकत्वं न साधयति अतः साधनवचनं निरर्थकं स्यात् । (दि० प्र०) 7 ततश्च । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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