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________________ ३२२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १५ वा कथञ्चित्साक्षात्करोति परोक्षयति वा केशादिविवेकव्यामुग्धबुद्धिवत् तादृशैकचैतन्यं सुखादिभेदं वस्तु स्वतोन्यतः सजातीयविजातीयाद्विविक्तलक्षणं बिति । अन्यथानवस्थानात क्वचित्कथंचिदनियमः स्यात् । सर्वो हि लौकिक: परीक्षकश्च तावदेकमक्रमात्मकमन्वयरूपं सामान्यात्मकं सत्परिणामं स्थित्यात्मकमात्मानं परं वा बहिरर्थसंतानान्तराख्यं द्रव्यापेक्षया साक्षात्करोति, लिङ्गशब्दादिना परोक्षयति वा, भावापेक्षया पुनरनेकाकारं क्रमात्मकं व्यतिरेकरूपं विशेषात्मकमसत्परिणाममुत्पत्तिविनाशात्मक, क्षेत्रापेक्षया स्वप्रदेशनियतं निश्चयनयतः, स्वशरीरव्यापिनं व्यवहारनयतः, कालापेक्षया त्रिकालगोचरम् । कथं पुनरीदृशमात्मान' परं वा साक्षात्करोति कथं वा परोक्षयति द्रव्याद्यपेक्षयेति चेदुच्यते । साक्षात्करणयोग्यद्रव्याद्यात्मना मुख्यतो व्यवहारतो वा विशदज्ञानेन साक्षात्करोति परोक्षज्ञानयोग्यद्रव्याद्यात्मना अनुमानादिप्रमाणेनाविशदेन परोक्षयति, विविक्तलक्षणवाली समझता है। अन्यथा अनवस्था होने से (व्यवस्था न होने से) क्वचित्-वस्तु में कथंचित् --किसी भी प्रकार से कोई भी नियम नहीं बन सकेगा। सभी लौकिक और परीक्षकजन द्रव्य की अपेक्षा से अपने को अथवा पर को बाह्य पदार्थ और संतानांतर को एकरूप अक्रमात्मक अन्वयरूप, सामान्यात्मक, सत्परिणामात्मक और स्थित्यात्मकरूप से साक्षात्कार करते हैं अथवा अनुमान एवं आगमज्ञानादि से जानते हैं और पूनः पर्याय की अपेक्षा से अपने को एवं पर अर्थ को अनेकाकार, क्रमात्मक (प्रतिक्षणध्वंसी) व्यतिरेकरूप, विशेषात्मक, असत्परिणामात्मक और उत्पत्ति विनाशात्मक रूप से प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा या अनुमानादि के द्वारा जानते हैं, उसी प्रकार सभी लौकिक और परीक्षकजन अपने को और पर को क्षेत्र की अपेक्षा से निश्चयनय से स्वप्रदेशनियत स्वीकार करते हैं तथा व्यवहारनय से स्वशरीरव्यापी मानते हैं । उसी प्रकार काल की अपेक्षा से त्रिकालगोचर स्वीकार करते हैं। प्रश्न-पूनः इस प्रकार से द्रव्यादि की अपेक्षा से अपने को अथवा पर को कोई किस प्रकार से साक्षात्कार करता है या परोक्ष से जानता है इसका स्पष्टीकरण कीजिये। उत्तर-कहते हैं, साक्षात्कार करनेयोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावरूप से मुख्य प्रत्यक्ष अथवा सांव्यवहारिकप्रत्यक्षरूप विशदज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष करता है अथवा परोक्षज्ञान (अनुमान ज्ञान और शब्दादि) के योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप से अनुमान।दि प्रमाणरूप अविशदज्ञान के द्वारा परोक्षरूप से जानता है । 1 सत्ताज्ञानं साक्षात् । अनेन जीवादिवस्तुनो सत्त्वमुक्तं पूर्वं तु सत्त्वम् । भिन्नज्ञानम् । (दि० प्र०) 2 कत । स्वरूपम् । (दि० प्र०) 3 स्वस्मात् परतः। (दि० प्र०) 4 स्वरूपम् । (ब्या० प्र०) 5 कथञ्चिन्नित्यकरूपम् । स्वपर्यायेषु । (व्या० प्र०) 6 ता । (ब्या० प्र०) 7 उक्तरूपम् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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