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________________ ३२० ] अष्टसहस्री [ कारिका १५ प्रतिभासविशेषवशात्क्रमः कथमभ्युपगमार्हः स्यात् ? सर्वस्य यथाप्रतिभासं वस्तुनः प्रतिष्ठानात्, प्रतिभासमानयोः 'क्रमाक्रमयोर्विरोधानवतरणाद्विरोधस्यानुपलम्भलक्षणत्वात् । न च स्वरूपादिना वस्तुनः सत्त्वे तदैव पररूपादिभिरसत्त्वस्यानुपलम्भोस्ति, येन सहानवस्थानलक्षणो विरोध: ", शीतोष्णस्पर्शविशेषवत्स्यात् । परस्परपरिहारस्थितिलक्षणस्तु विरोधः सहैकत्रा म्रफलादौ रूपरसयोरिव संभवतोरेव सदसत्त्वयोः स्यात्, न पुनरसंभवतो: संभवद एवं प्रतिभासमान क्रम और अक्रम में विरोध का अवतरण ही नहीं हो सकता है। क्योंकि विरोध तो अनुपलम्भलक्षणवाला है । जिस समय वस्तु स्वरूपादि से सत्रूप है, उसी समय पररूपादि से असत् रूप नहीं है, ऐसा तो है नहीं, जिससे कि शीतोष्ण स्पर्शविशेष के समान सहानवस्थालक्षण विरोध हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है, क्योंकि वस्तु जिस समय स्वरूप से सत्रूप है उसी समय में पररूप से असत् रूप है । तथा इन सत्त्व असत्त्व में परस्पर - परिहारस्थितिलक्षण विरोध भी तो नहीं है, क्योंकि एक ही आम्र फलादि में रूप और रस के समान सभव में ही यह विरोध होता है, न कि पुनः असंभव में, अथवा संभव और असंभव में हो सकता है । भावार्थ- परस्पर - परिहारस्थितिलक्षण विरोध तो एक वस्तु में रहते हुये भी एक दूसरे को हटाकर ही रहता है, और वह वस्तु में संभव दो धर्मों में ही हो सकता है जैसे कि आम्र में रूप और रस एक दूसरे रूप न होकर भी रहते हैं । तथा यह विरोध असंभावित वस्तु में संभव नहीं है, जैसे कि पुद्गल में ज्ञान और दर्शन । एवं संभव और असंभवरूप वस्तु में भी संभव नहीं है जैसे कि पुद्गल में रूप और ज्ञान अर्थात् आम्र में रस रूपात्मक नहीं है एवं रूप रसात्मक नहीं है यही परस्पर में परिहारस्थितिलक्षण विरोध है । इस कथन से बलवान् और बलहीन सर्प और नकुल में बाध्य - घातकभाव विरोध है जो कि इन सत्त्व और असत्त्व में है ऐसी शंका भी नहीं करना चाहिये क्योंकि यह सत्त्व और असत्त्व समानबलवाले हैं इस प्रकार से हम आगे "अस्तित्वं प्रतिषेध्येना" इत्यादि कारिका के विवरण में विस्तार से कहेंगे । विशेषार्थ - प्रश्न यह हुआ था कि एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों धर्म कैसे रह सकेंगे ? क्योंकि विरोध आता है । इस पर आचार्य ने विरोध के ३ भेद किये हैं । 1 अदर्शनाद्विरोधस्य संभवः । ( दि० प्र०) 2 यत्र प्रतिभासस्यानुपलम्भः तत्रैवविरोधोऽप्रतिभासमाने प्रतिभासप्रतिपादनं विरोधः । (ब्या० प्र० ) 3 दृष्टान्तं समर्थ्य प्रकृतमुपसंहरन्ति न चेति । ( दि० प्र० ) 4 तस्मिन् काले । ( ब्या० प्र० ) 5 नव । ( व्या० प्र० ) 5 सत्त्वासत्त्वयोः । अविद्यमानयोर्वा न तावदविद्यमानयोरेकत्र संभविनोः प्रमाणगृहीतयोः कथं विरोधः । ( व्या० प्र० ) 7 स्वभावः । ( व्या० प्र० ) 8 युगपत् । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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