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________________ २८८ ] अष्टसहस्री [ कारिका १४ द्वस्तुप्रतिनियमविरोधात्' । एतेन क्रमापितोभयत्वादीनां वस्तुधर्मत्वं प्रतिपादितं, 'तदभावे क्रमेण सदसत्त्वविकल्पशब्दव्यवहारस्य विरोधात्, सहावक्तव्य तदुत्तरधर्मत्रयविकल्पशब्दव्यवहारस्य चासत्त्वप्रसङ्गात् । न चामी व्यवहारा निविषया' एव, वस्तुप्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिनिश्चयात् तथाविधरूपादिव्यवहारवत् । तस्यापि निविषयत्वे सकलप्रत्यक्षादिव्यवहारापह्नवान्न कस्यचिदिष्टतत्त्वव्यवस्था स्यात् । ननु च प्रथमद्वितीयधर्मवत् प्रथमतृतीयादिधर्माणां क्रमेतरार्पितानां धर्मान्तरत्वसिद्धेर्न सप्तविधधर्मनियमः सिध्येदिति चेन्न, क्रमार्पितयोः प्रथमतृतीयधर्मयोधर्मान्तरत्वेनाप्रतीतेः सत्त्वद्वयस्यासंभवात्, विवक्षितस्वरूपादिना 10सत्त्वस्यकत्वात् । तदन्यस्वरूपादिना सत्त्वस्य द्वितीयस्य संभवेपि विशेषादेशात्तत्प्रतिपक्षभूतासत्त्वस्यापि13 परस्य भावादपरधर्मसप्तकसिद्धेः15 सप्तभङ्गयन्तरसिद्धेः कथमुपालम्भः? एतेन द्वितीयतृतीयधर्मयोः 16क्रमार्पितयोर्धर्मान्तरत्वमप्रातीतिक17 व्याख्यातम् । वस्तु की प्रतिपत्ति, उसमें प्रवृत्ति और उसकी प्राप्ति का निश्चय देखा जाता है। जैसे कि रूपादि की प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति एवं प्राप्ति का व्यवहार पाया जाता है और उसको भी निविषय मानने पर संपूर्ण प्रत्यक्षादि व्यवहार का लोप हो जावेगा, पुनः किसी के भी इष्टतत्त्व की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। शंका-अस्तित्वधर्म से नास्तित्व धर्म धर्मान्तर है अतः उस प्रथम एवं द्वितीय धर्म के समान प्रथम, तृतीय आदि धर्मों में क्रम और सह से विवक्षित धर्मान्तरत्व सिद्ध है अतएव सात प्रकार क धर्म का नियम सिद्ध नहीं हो सकेगा। ___ समाधान नहीं, प्रथम और तृतीय धर्म की धर्मान्तरपने से प्रतीति नहीं होती है कारण दो सत्त्व असंभव हैं । अतएव विवक्षित स्वरूपादि चतुष्टय से सत्त्व एक ही है और विवक्षित से भिन्न स्वरूपादि से द्वितीय सत्त्व के संभव होने पर भी विशेष आदेश से वह अन्य सत्त्व है और उसका प्रतिपक्षभूत दूसरा असत्त्व भी विद्यमान है, अतः दूसरा ही धर्म सप्तक सिद्ध हो जाने से भिन्न ही सप्तभंगी सिद्ध हो जाती है। यह उलाहना कैसे दिया जा सकता है ? अर्थात् नहीं दिया जा सकता है। 1 अन्यथा । (दि० प्र०) 2 क्रमेण । (दि० प्र०) 3 क्रमापितोभयत्वादीनां पञ्चानां भङ्गानामभावे क्रमेण सत्त्वमसत्त्वमिति भंगद्वयस्याभावो घटते । (दि० प्र०) 4 अस्तित्वनास्तित्वयोः सह विवक्षायां यदवक्तव्यत्वं धर्मस्तत् सहाव्यक्तव्यत्वम् । अवक्तव्यं सदवक्तव्यमसदवक्तव्यमुभयावक्तव्यञ्चेति । (दि० प्र०) 5 बसः । (दि० प्र०) 6च हेत्वन्तरम् । (दि० प्र०) 7 निरर्थका एव न । (दि० प्र०) 8 प्रतिपत्त्यादि हेतुः। (दि० प्र०) 9 रूपादेः । (दि० प्र०) 10 एकजीवस्य । (ब्या० प्र०) 11 देवस्वरूपस्य । (ब्या० प्र०) 12 पर्यायकथनात् । (ब्या० प्र०) 13 सत्व । (दि० प्र०) 14 मनुष्यस्य । (ब्या० प्र०) 15 बसः । (ब्या० प्र०) 16 सप्तधर्मान् विहायान्यो धर्मो न स्यात् । (दि० प्र०) 17 इति । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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