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________________ अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ नामेव भङ्गानामुपपत्तेः, प्रतिपाद्यप्रश्नानां तावतामेव संभवात् प्रश्नवशादेव सप्तभङ्गीति नियमवचनात् । सप्तविध एव तत्र ' प्रश्नः कुत इति चेत्, सप्तविधजिज्ञासाघटनात् । सापि सप्तविधा कुत इति चेत्, सप्तधा संशयोत्पत्तेः । सप्तधैव संशयः कथमिति चेत्, तद्विषय - वस्तुधर्मसप्तविधत्वात् । तत्र सत्त्वं वस्तुधर्मः, 'तदनुपगमे वस्तुनो वस्तुत्वायोगात् खरविषाणादिवत् । तथा कथञ्चिदसत्त्वं, स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ प्रतिनियतस्वरूपाभावा २८७ समाधान - ऐसा नहीं कह सकते । अनन्त सप्तभंगी हमें इष्ट हैं । अर्थात् धर्म-धर्म के प्रति सप्तभंगी पाई जाती है और प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं, अतः सप्तभंगी भी अनन्त हो जाती हैं किन्तु अनन्तभंगी नहीं हो सकती हैं क्योंकि उस वस्तु में एकत्व, अनेकत्व आदि की कल्पना से सात ही भंग हो सकते हैं और शिष्यों के द्वारा प्रश्न भी उतने ही हो सकते हैं । तथा "प्रश्नवशादेव सप्तभंगी" इस प्रकार का वचन भी पाया जाता है । शंका-उसमें सात प्रकार के ही प्रश्न क्यों हैं ? समाधान - सात प्रकार की ही जिज्ञासा हो सकती है । शंका- वह जिज्ञासा भी सात ही प्रकार की क्यों ? समाधान - सात ही प्रकार से संशय उत्पन्न होता है । शंका-सात प्रकार का ही संशय क्यों है ? समाधान- उसके विषयभूत वस्तु धर्म सात प्रकार के ही हैं । उन वस्तु धर्मों में "सत्त्व " वस्तु का धर्म है । यदि उसे न स्वीकार करें, तो वस्तु में वस्तुत्व का ही अभाव हो जावेगा, गधे के सींग के समान । उसी प्रकार से कथञ्चित् असत्त्व भी वस्तु का धर्म है । स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के समान परद्रव्यादि चतुष्टय से भी यदि वस्तु असत् इष्ट न करें अर्थात् सत् स्वीकार कर लेवें तब तो "यह घट ही है, पट नहीं है" इत्यादि प्रतिनियत स्वरूप का अभाव हो जाने से वस्तु के प्रतिनियम का ही विरोध हो जावेगा । इसी प्रकार सत्त्व एवं असत्त्व वस्तु के धर्म हैं इस कथन से क्रम से अर्पित उभयत्व आदि भी वस्तु के धर्म हैं, ऐसा प्रतिपादन कर दिया गया है, उस उभयत्व धर्म को स्वीकार न करने पर क्रम से सत्त्व और असत्त्व विकल्प के शब्द व्यवहार का विरोध हो जावेगा और अवक्तव्य के साथ वर्तमान उत्तर तीन धर्मों के विकल्प के शब्द व्यवहार का अभाव हो जावेगा । अतएव वस्तु में सात प्रकार के संशय से सात ही भंग पाये जाते हैं । यह सप्तविध व्यवहार निर्विषयक भी नहीं है, क्योंकि 1 क्रियमाण । (दि० प्र० ) 2 जीवादिवस्तुनि । ( दि० प्र०) 3 ताबहु: । ( ब्या० प्र० ) 4 सत्त्वानङ्गीकारे । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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