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________________ २८० ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ भासमानं सामान्य विकल्पाभिलापयोजनेनाभिलाप्यमिष्यते । न च ग्राहकप्रत्यक्षस्मृतिप्रतिभासभेदाद्विषयस्वभावाभेदाभावः', 'सकृदेकार्थोपनिबद्धदर्शन प्रत्यासन्नेतरपुरुषज्ञानविषयवत् । यथा हि सकृदेकस्मिन्नर्थे पादपादावुपनिबद्धदर्शनयोः प्रत्यासन्नविप्रकृष्टपुरुषयोIनाभ्यां विषयीकृते स्पष्टास्पष्टप्रतिभासभेदान्न स्वभावभेदः पादपस्य, तस्यैकत्वाव्यतिक्रमात्, तथैव ग्राहकयोः प्रत्यक्षस्मृतिप्रतिभासयोर्भेदेपि स्पष्टमन्दतया' न तद्विषयस्य भेदः, 'स्वलक्षणस्यैकस्वभावत्वाभ्युपगमात् । तथा च मन्दप्रतिभासिनि स्वलक्षणे घटादौ शब्दविकल्पविषये तत्संकेतव्यवहारनियमकल्पनायामपि कथञ्चिदभिधेयत्वं वस्तुनः सिद्धम् । इत्यलं ___ क्योंकि प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत ही स्वलक्षण-परस्पर में असंश्लिष्ट परमाणुलक्षण है, वह अन्यसामान्य से व्यावत्त है और साधारण आकार से प्रतिभासमान सामान्य है। वह विकल्प-अभिलाप मा से अभिलाप्य - वाच्य है और इस प्रकार से सामान्य के द्वारा स्वलक्षण भी अभिलाप्यकहा जाता है, क्योंकि सामान्य और स्वलक्षण में भेद का अभाव है। (यदि आप ऐसा कहें कि ग्राहक के भेद से सामान्य और स्वलक्षण में भेद है) तो हम कह सकते हैं कि ग्राहक प्रत्यक्ष, स्मृति के प्रतिभास के भेद से विषय और स्वभाव में अभेद का अभाव है ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि जैसे एकसाथ एकपदार्थ के प्रति उपनिबद्ध दर्शन-देखने में संलग्न निकटवर्ती और दूरवर्तीपुरुष के ज्ञान का विषय भिन्न-भिन्न रहता है, जैसे कि एक हो पदार्थ वृक्षादि को देखने में संलग्न हुये दो मनुष्य एक निकटवर्ती है और दूसरा दूरवर्ती है, उन दोनों पुरुषों के द्वारा विषय करने पर स्पष्ट और अस्पष्ट प्रतिभास भेद पाया जाता है, एतावता उस वृक्ष में स्वभाव भेद नहीं है, क्योंकि वह वृक्ष एकत्व का उलंघन नहीं कर सकता है। उसी प्रकार से प्रत्यक्ष निर्विकल्प है एवं स्मृति सविकल्प है, इन दोनों के ग्राहक भिन्न-भिन्न होने से प्रत्यक्ष और स्मृति के प्रतिभास में स्पष्ट और मन्दरूप से प्रतिभास भेद होने पर भी स्वलक्षण और सामान्य में विषय का भेद नहीं है, क्योंकि स्वलक्षण को आपने एक स्वभाववाला स्वीकार किया है। उसी प्रकार से मंद प्रतिभासी स्वलक्षण में एवं शब्द के विकल्प का विषयभूत घटादि में उसके संकेत और व्यवहार के नियम को कल्पना के करने पर भी कथंचितवस्तु को अभिधेयत्व-वाच्यपना सिद्ध ही है, इस प्रकार अब इस प्रकरण से बस होवे। ___अर्थात् - सामान्य की अपेक्षा से वस्तु अभिलाप्य है और अर्थपर्याय की अपेक्षा से अनभिलाप्य भी है, यह अनेकांत सिद्ध हो जाता है। अतः अवाच्यतारूपएकांतपक्ष में दूषण देने में अधिक विस्तार से अब कुछ प्रयोजन नहीं है। जो बौद्ध ऐसा कहता है कि रूपादि स्वलक्षण में शब्द का अभाव होने 1 ग्राहकभेदात् सामान्यस्वलक्षणयोर्भेद इत्युक्त आह । (ब्या० प्र०) 2 स्मृतिशब्देन विकल्पोऽत्र ग्राह्यः । (ब्या० प्र०) 3 पादपः । (ब्या० प्र०) 4 अनासन्न । (ब्या० प्र०) 5 बसः । (ब्या० प्र०) 6 अस्पष्ट । (ब्या० प्र०) 7 घटादेः । (ब्या० प्र०) 8 किञ्चिदिदमपीति । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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