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________________ अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद प्रसङ्गात्, तत्स्वभावस्य तदन्यव्यावृत्तिकल्पने फलाभावात्', प्रतिनियततत्स्वभावस्यैवान्यव्यावृत्तिरूपत्वात् । [ २७६ [ ज्ञानं सविकल्पकमेवेति जैनाचार्याः कथयंति सविकल्पकप्रत्यक्षज्ञानवादिनां त्वेषामवग्रहेहावायज्ञानादनभ्यासात्मकादन्यदेवाभ्यासात्मकं धारणाज्ञानं प्रत्यक्षम् । तेषां तदभावे परोपन्यस्तसकलवर्णपदादिष्ववग्रहादित्रयसद्भावेपि न स्मृतिः । तत्सद्भावे तु स्यादेव, सर्वत्र यथासंस्कारं स्मृत्यभ्युपगमात् क्वचिदभिलापसंस्कारादभिलापस्मृतिवत् । 'प्रत्यक्षेभिलापसंस्कारविच्छेदे' 'कुतस्तद्विकल्प्याभिलापसंयोजनं यतः सामान्यमभिलाप्यं स्यात् । प्रत्यक्षगृहीतमेव हि स्वलक्षणमन्यव्यावृत्तं साधारणाकारतया प्रति सौगत (प्रज्ञाकर ) - हम अन्य की व्यावृत्ति से उस प्रत्यक्ष में अभ्यासादि का योग स्वीकार कर लेगें अर्थात् "प्रत्यक्ष में अभ्यासादि हैं अनभ्यासादि की व्यावृत्ति होने से " इस प्रकार से उस प्रत्यक्ष में अभ्यासादि का योग हो सकेगा । जैन - ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि स्वयं अतत्स्वभाव प्रत्यक्ष में उस अन्य की व्यावृत्ति को सम्भवित करने पर अग्नि में अशीतत्वादि की व्यावृत्ति का प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् शीतस्वभाव जिसका नहीं है वह अतत्स्वभाव है शीत से अन्य अशीतत्व, उसकी उस अन्य से व्यावृत्ति होने का प्रसंग आ जावेगा । एवं तत्स्वभाव प्रत्यक्ष में तदन्यव्यावृत्ति की कल्पना करने पर फल का अभाव हो जावेगा क्योंकि प्रतिनियत तत्स्वभाव ही अन्य व्यावृत्तिरूप है । [ ज्ञान सविकल्प ही है ऐसा जैनाचार्य सिद्ध करते हैं । ] सविकल्प प्रत्यक्षज्ञानवादी हम जैनों के यहाँ तो अवग्रह, ईहा, अवायज्ञान अनभ्यासात्मक हैं एवं उनसे भिन्न ही धारणा ज्ञान अभ्यासात्मक है जो कि प्रत्यक्ष है । इस प्रकार हमारे यहाँ उस प्रत्यक्ष धारणाज्ञान के अभाव में पर के द्वारा उपन्यस्त सकलवर्ण पदादि में अवग्रह. ईहा, अवायरूप तीन ज्ञान के सद्भाव होने पर भी स्मृति नहीं हो सकती है और उस धारणाज्ञान के सद्भाव में तो स्मृति होती ही होती है क्योंकि सर्वत्र संस्कार के अनुकूल ही स्मृति को स्वीकार किया गया है, जैसे किसी नीलादि में धारणारूप वासना के शब्द संस्कार से 'नीलम्' इस प्रकार के शब्द की स्मृति देखी जाती है । निर्विकल्प प्रत्यक्ष में अभिलाप के संस्कार का विच्छेद होने पर उस विकल्प्य में अभिलाप का संयोजन कैसे होगा, कि जिससे आप सामान्य को अभिलाप्य - शब्द के द्वारा प्रतिपादित कर सकें ? 1 प्रयोजनाभावात् । (ब्या० प्र०) 2 धारणा स्वभावे । ( दि० प्र० ) 3 तदसद्भावेपि तस्या एवेति पा० । ( दि० प्र०) = धारणाया: । ( दि० प्र०) 4 धारणाज्ञानमेव संस्कारशब्देनाभिधीयते । ( दि० प्र०) 5 रहिते सति । (दि० प्र० ) 6 प्रत्यक्षजनित । (दि प्र० ) 7 आशंक्य । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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