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________________ २७२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ इति वचनात् 'समुद्भाव्यते' तथैव शब्दानुयोजनासहितार्थग्राहिविकल्पवादिनामपि' सौगतानामिन्द्रियज्ञानमुपयोगे' सत्यपि विकल्पोत्पत्तौ स्मात्तं शब्दानुयोजन विकल्पो यद्यपेक्षेत तदातदिन्द्रियज्ञानं स्वविषयनामविशेषस्मरणेन तद्योजनेन च व्यवहितं स्यात् । तथा च नेन्द्रियज्ञानाद्व्यवसाय: स्यात् तदभावे भावात्तद्भावेपि चाभावादिति दूषणमुद्भावनीयं, "ज्ञानोपयोगेपि पुनः स्मार्त शब्दानुयोजनं । विकल्पो यद्यपेक्षताध्यक्षं व्यवहितं भवेत् ॥" इति वक्तुं शक्यत्वात्, अर्थशब्देन प्रत्यक्षस्याभिधानाद्वा, क्वचिद्विषयेण विषयिणो वचनाद्धर्मकीर्तिकारिकाया एव 'तन्मतदूषणपरत्वेन व्याख्यातुं शक्यत्वात् । यथा च प्रागजनको इस कथन से उपर्यक्त दूषण उद्भावित किया जाता है, उसी प्रकार से शब्दानयोजना सहित अर्थशाहि विकल्पवादी बौद्धों के यहाँ भी निर्विकल्प इंद्रियज्ञान का उपयोग होने पर भी सविकल्प की उत्पत्ति में यदि स्मार्त और शब्दानयोजन विकल्प की अपेक्षा रखे तब तो वह इंद्रियज्ञान स्व नामविशेष का स्मरण और उसकी योजना से व्यवहित हो जावेगा और पुन: इस प्रकार से इंद्रियज्ञान से सविकल्प व्यवसाय नहीं हो सकेगा, क्योंकि उस इंद्रियज्ञान के अभाव में भी उस व्यवसाय का सद्भाव है और उसके सद्भाव में भी उस व्यवसाय का अभाव देखा जाता है। इस प्रकार का दूषण उद्भावित कर सकते हैं। श्लोकार्थ-निर्विकल्पज्ञान के होने पर भी यदि निर्विकल्प प्रत्यक्ष से उत्पन्न हुआ विकल्प स्मार्त एवं शब्दानयोजन की अपेक्षा रखता है, तब तो वह विकल्प प्रत्यक्ष भी व्यवहित अर्थात् ति निर्विकल्प हो जावेगा । इस प्रकार से हम जैनाचार्य भी आप बोद्धों को दूषण दे सकते हैं। यहाँ पर "अर्थोपयोगेऽपि" इस धर्मकीति बौद्ध के गुरू की कारिका में अर्थ शब्द से प्रत्यक्ष शब्द का अर्थ ग्रहण कर लेने पर वह उन्हीं की कारिका ही उनके मत को दूषित सिद्ध करने में समर्थ हो जाती है, क्योंकि विषय-अर्थ के द्वारा विषयी-ज्ञान का भी कथन हो सकता है और जिस प्रकार से 1 अन्यसौगतैः शब्दाद्वैतवादिनामिति कारिकावचनात् । तदभावेपि भावात् । अर्थऽसत्यपि सविकल्पकाक्षज्ञानमृत्पद्यते । तद्भावेपि चाभावात्। अर्थे सत्यपि सविकल्पकाक्षज्ञानं नोत्पद्यते इति दूषणं प्रकाश्यते । (दि० प्र०) 2 नैयायिकान् प्रतिसौगतेन । (दि० प्र०) 3 सामान्यम् । (ब्या० प्र०) 4 निर्विकल्पकस्य व्यापारे । (ब्या० प्र०) 5 स्वस्येन्द्रियस्य यो विषयः स्तम्भादिस्तस्य नाम विशेषः । (दि० प्र०) 6 क्वचित्प्रस्तावेऽर्थ ग्रहणेन कृत्वा विषयिणस्तद्ग्राहकज्ञानस्य ग्रहणं स्यात् । इति सौगताद्यभिधानात् । अध्यक्षं व्यवहितं भवेदिति कोर्थः अर्थो व्यवहितो भवेत् । विषयवाचकेन शब्देन । प्रत्यक्षस्य । (दि० प्र०) 7 प्रतिपादनात् । (दि० प्र०) 8 न पुनः ज्ञानोपयोगे इत्यादिकाया जैनोक्तकारिकायाः । (दि० प्र०) 9 अग्रे वक्ष्यमाणायाः । (ब्या० प्र०) 10 धर्मकीत्तिः स्वलक्षणार्थवादी शब्दाद्वैतवादिनं प्रति तन्मतानुसारेणैव दूषणमुद्भावयति । य: रूपाद्यर्थः स्मार्त्तशब्दानुयोजनात्पूर्वमभिलापविकल्पस्याऽनुत्पादक: सोर्थः स्मार्तशब्दानुयोजने सत्यपि पश्चादपि विकल्पस्याजनक: स्यात् । कुतस्तस्यार्थस्य प्राक पश्चात् कालयोः विकल्पानुत्पादनलक्षणउपयोगे विशेषाभावात । एवं शब्दाद्वैतवादिनोऽर्थाभावेपि विकल्पज्ञानमूत्पद्यताम् । इति दूषणोद्भावनम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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