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________________ अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २७१ न्नभिलापेन' योजयेत् । ततो न किञ्चित्प्रमेयमनभिलाप्यं नाम श्रुतज्ञानपरिच्छेद्यं, शब्दयोजितस्य श्रुतविषयत्वोपपत्तेः । प्रत्यक्षस्यानभिलाप्यत्वे स्मात्तं शब्दानुयोजनं दृष्टसामान्यव्यवसायो यद्यपेक्षेत सोर्थो व्यवहितो भवेत् तदिन्द्रियज्ञानात्सामान्यव्यवसायो न स्यात् । यथैव हि शब्दसंसृष्टार्थग्राहिसविकल्पकप्रत्यक्षवादिनामर्थोपयोगे' सत्यपि स्मार्त्तशब्दानुयोजनापेक्षेऽक्षज्ञाने तदर्थो व्यवहितः स्यात् स्मार्तेन शब्दानुयोजनेन इति तदर्थादक्षज्ञानं सविकल्पक न स्यात्, तदभावेपि भावातद्भावेपि चाभावादिति दूषणम्-- 6"अर्थोपयोगेपि पुन: स्मार्त शब्दानुयोजनम् । अक्षधीयद्यपेक्षेत सोथों व्यवहितो भवेत् ॥" इसलिये सामान्य और विशेष में अभेद होने से सामान्य के समान ही स्वलक्षण का अध्यवसाय करता हुआ, शब्द के द्वारा उसकी योजना करता है। इसलिये किचित् भी प्रमेय अनभिलाप्य नहीं है किन्तु श्रुतज्ञान के द्वारा परिच्छेद ही है, क्योंकि शब्द से योजित वस्तु श्रुतज्ञान का विषय है ऐसी उपपत्ति है। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्षज्ञान को अनभिलाप्य-शब्द के संसर्ग से रहित स्वीकार करने पर स्मार्त-स्मृति से आगत शब्दानुयोजन-पहले अर्थ का देखना पश्चात शब्द को योजना करना और दृष्ट सामान्य व्यवसाय अपनी उत्पत्ति के होने पर दृष्ट सामान्य का निर्णय करना (अर्थ से उत्पन्न प्रत्यक्ष उसी अर्थ को जानता है ऐसा बौद्ध का कहना है।) यदि अपेक्षित किया जावे, तब तो प्रत्यक्षज्ञान से ग्राह्य अर्थ शब्द को योजना से व्यवहित हो जावेगा और उस इन्द्रियज्ञान से सामान्य व्यवसाय नहीं हो सकेगा। जिस प्रकार से शब्द संसृष्टार्थग्राहि सविकल्प प्रत्यक्षवादी नैयायिकों के यहाँ ज्ञानोत्पादनलक्षण अर्थ ग्रहणव्यापार के होने पर भी स्मार्त और शब्दानुयोजना की अपेक्षा रखने वाले अक्षज्ञान में वह अर्थ (अर्थ से उत्पन्न हुआ प्रत्यक्ष उसी अर्थ को ग्रहण करता है यह वौद्ध का अर्थ) व्यवहित हो जावेगा। तब तो स्मृति से आगत एवं शब्द की योजना से इति- इस प्रकार उस नीलादि अर्थ से वह अक्षज्ञान सविकल्प नहीं होगा, क्योंकि उस अर्थ के अभाव में भी उस सविकल्पक अक्षज्ञान का सद्भाव है और उस अर्थ के सद्भाव में भी उस ज्ञान का अभाव है। इस प्रकार का क्षण प्राप्त हो जाता है। कहा भी है श्लोकार्थ- यदि सविकल्पज्ञान अर्थ ग्रहण व्यापार होने पर भी स्मार्त एवं शब्दानुयोजना की अपेक्षा रखता है, तब तो वह सविकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत पदार्थ व्यवहित हो जावेगा। 1 सौगतः । (दि. प्र.) 2 जिनालये देवदत्तोस्तीति तज्ञानेन ज्ञात्वा जिनालयं गत्वा शब्दवतस्तस्य शब्दं श्रुत्वा शब्दविषयत्वमुपपद्यते । (दि० प्र०) 3 सविकल्पकज्ञानं शब्दानुविद्धमर्थं गृह्णाति एवं वादिनां शब्दाद्वैतवादिनामर्थग्रहणे सत्यपि । (दि० प्र०) 4 हेतोः । (ब्या० प्र०) 5 शब्दयोजनम् बिना । (व्या० प्र०) 6 ग्रहणे । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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