SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवक्तव्य एकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २६६ इति वचनात्, तयोरभेदे सांवृतेतरस्वभावविरोधात् । इति कश्चित्, सोपि 'स्वदर्शनानुरागी न परीक्षकः, स्वेनासाधारणेन रूपेण लक्ष्यमाणस्य सामान्यस्यापि स्वलक्षणत्वघटनाद्विशेषवत् । यथैव हि विशेषः स्वेनासाधारणेन रूपेण सामान्यासंभविना विसदृशपरिणामात्मना लक्ष्यते तथा सामान्यमपि स्वेनासाधारणेन रूपेण सदृशपरिणामात्मना विशेषासंभविना लक्ष्यते इति कथं स्वलक्षणत्वेन विशेषाद्भिद्यते ? यथा च विशेषः स्वामर्थक्रियां कुर्वन् व्यावृत्तिज्ञानलक्षणामर्थक्रियाकारी तथा सामान्यमपि स्वामर्थक्रियामन्वयज्ञानलक्षणां कुर्वत् कथमर्थक्रियाकारि न स्यात् ? तद्बाह्यां' पुनर्वाहदोहाद्यर्थक्रियां यथा न सामान्यं कर्तुमुत्सहते तथा विशेषोपि केवलः, सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनो गवादेस्तत्रोपयोगात् । इत्यर्थक्रियाकारित्वेनापि तयोरभेद: सिद्धः । 'एकस्माद्रव्यात्कथञ्चिदभिन्नत्वसाधनाच्च' सामान्यविशेषपरिणामयोरभेदोभ्युपगन्तव्यः । तथा च सामान्य व्यवस्यन्नपि 'कथञ्चित्तदभिन्नस्वलक्षणं न व्यवस्यतीति कथमुपपत्तिमत्' ? का है। उसी प्रकार सामान्य भी विशेष में असंभवी, सदृश परिणामात्मक 'स्व'- अपने असाधारणरूप से लक्षित किया जाता है, इसलिये स्वलक्षणपने से विशेष की अपेक्षा सामान्य में भेद कैसे हो सकता है ? अर्थात् कथमपि नहीं हो सकता है । और जिस प्रकार से विशेष अपनी अर्थक्रिया को करते हुये व्यावृत्तिज्ञानलक्षण अर्थक्रिया को करने वाला है, उसी प्रकार से सामान्य भी अन्वयज्ञानलक्षण अपनी अर्थक्रिया को करते हुये अर्थक्रियाकारी क्यों नहीं है ? पुनः जिस प्रकार से सामान्यवाह, दोहन आदि बाह्य अर्थक्रिया को करने में समर्थ नहीं है, उसी प्रकार से सामान्य से रहित केवल (अकेला) विशेष भी अर्थक्रिया को करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि जो सामान्य विशेषरूप उभयात्मक 'गौ' आदि वस्तु हैं, उन्हीं का उन वाह, दोहन आदि क्रियाओं के करने में व्यापार होता है । इस प्रकार से अर्थक्रियाकारीपने से भी सामान्य और स्वलक्षण में अभेद सिद्ध ही है। अर्थात् पुरुषलिंग गौ तो भार ढोने के काम में आता है अतः उसकी अर्थक्रिया “वाह" है एवं स्त्रीलिंगरूप गौ के दोहन (दुहना) अर्थक्रिया पाई जाती है । और एकद्रव्य से कथंचित् अभिन्नपना सिद्ध करने से सामान्य और विशेष परिणाम में भी अभेद स्वीकार करना चाहिये। 1 एव । (ब्या० प्र०) 2 उक्तप्रकारेण सामान्यस्यापि स्वलक्षणत्वसंभवेन । (दि० प्र०) 3 सामान्यम् । (व्या० प्र०) 4 का। लक्षणभेदेपि तयोरभेदो भविष्यतीत्याह । (ब्या० प्र०) 5 सामान्यविशेषयोः पक्षो भेदो भवतीति साध्यो धर्मः । अर्थक्रियाकारित्त्वात् । (दि० प्र०) 6 वस्तुनः। (दि० प्र०) 7 त्वन्मतामृतबाह्यानामिति कारिकाव्याख्याने सामान्यविशेषकात्मनः संवित्तिरित्यादिना साधित्वात् । द्रव्यपर्याययोरैक्यमितिकारिकाव्याख्याने। उपयोगविशेषाद्रपादिज्ञाननिर्भासभेदः स्वविषयैकत्वं न वै निराकरोतीत्यादिना द्रव्यस्य समर्थयिष्यमाणत्वाच्च । (दि० प्र०) 8 अभेदे च । (दि० प्र०) 9 सामान्यात् । (दि० प्र०) 10 विशेषम् । (ब्या० प्र०) 11 इति सौगतवचः कथं प्रमाणोपपन्नम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy