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________________ २६८ ] अष्टसहस्री [ कारिका १३ तदेवाप्रमाणप्रमेयत्वमवश्यमनुषज्येत । अत्रापीयमेव कारिका योज्या, 'अभिलापविवेकतः' इत्यभिलापनिश्चयत इति व्याख्यानात् । प्रतिपादितदोषभयात्तदयमशब्दं सामान्य व्यवस्यन स्वलक्षणमपि व्यवस्येत्', सामान्यलक्षणस्वलक्षणयोहि भेदाभावात् । [ बौद्धः स्वलक्षणसामान्ययोर्भेदं साधयति ] नन्वर्थक्रियाकारिणः परमार्थसतः स्वलक्षणत्वात्, ततोन्यस्यानर्थक्रियाकारिणः संवृतिसतः सामान्यलक्षणत्वात्तयोः कथमभेद: स्यात् ? "यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । अन्यत्संवृतिसत् प्रोक्ते ते 'स्वसामान्यलक्षणे " ___"अभिलाप तदंशानामभिलाप विवेकतः । अप्रमाण प्रमेयत्वमवश्यमनुषज्यते ।।" अर्थ-शब्द और उसके अंश स्वर व्यञ्जन के नाम से रहित होने से अवश्य ही यह जगत् प्रमाण और प्रमेय से शून्य हो जावेगा। उपर्यक्त दोषों के भय से यह सौगत शब्द रहित सामान्य (विकल्प से ग्राह्य) का निश्चय करते हये स्वलक्षण का भी निश्चय कर लेगा, क्योंकि सामान्य और स्वलक्षण में भेद का अभाव है। [ बौद्ध स्वलक्षण और सामान्य में भेद सिद्ध करता है ] बौद्ध-जो अर्थ क्रियाकारी है और परमार्थ से सत् है, वही स्वलक्षण है और उससे भिन्नरूप जो अर्थक्रियाकारी नहीं है एवं संवृतिसत् (काल्पनिक) है, वह सामान्य है अतः सामान्य और स्वलक्षण में अभेद कैसे हो सकता है ? उलोकार्थ-जो अर्थक्रियाकारी है वही परमार्थ से सत् है वही स्वलक्षण है और जो अर्थक्रियाकारी नहीं है, संवृति से सत् है, वह सामान्य का लक्षण है। यदि इन दोनों में अभेद स्वीकार करोगे, तब काल्पनिक और वास्तविक स्वभाव में विरोध हो जावेगा। जैन-ऐसा कथन करने वाला बौद्ध भी अपने दर्शन का अनुरागी-स्वमत पक्षपाती ही है किन्तु परीक्षक नहीं है, क्योंकि "स्व" अर्थात् असाधारणरूप से लक्षितसामान्य को भी स्वलक्षणत्व घटित हो जाता है, विशेष के समान । जैसे कि विशेष 'स्व' अर्थात् अपने असाधारण रूप से जो कि सामान्य में असम्भवी है एवं विसदृश परिणामात्मक है उसके द्वारा लक्षित किया जाता है, यह लक्षण विशेष 1 प्रयुक्तम् । जगत् । (दि० प्र०) 2 वक्ष्यमाणभाष्यस्थतच्छब्दविवरणमिदम् । (दि० प्र०) 3 नीलस्वरूपम् । गवाद्यन्यापोहम् । (दि० प्र०) 4 शब्दरहितत्वादेव स्वलक्षणं न व्यवस्यत इति प्रतिज्ञाय पुन: शब्दरहितस्य सामान्यस्य व्यवसायाभ्युपगमात् तथा सामान्यमपि स्वेनासाधारणेन रूपेणेति पूर्वोक्तमत्रापि संबन्धनीयम् । (दि० प्र०) 5 हीति यस्मात् कारणात् । (ब्या० प्र०) 6 अर्थक्रियाकारिणः परमार्थसतः स्वलक्षणत्वमन्यस्य सामान्य लक्षणत्वं कुतः । (दि० प्र०) 7 स्वलक्षणं सामान्यलक्षणम् । (दि० प्र०) 8 ते च ते लक्षणे च । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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