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________________ २५० 1 अष्टसहस्री [ कारिका १२ भ्युपेतं सदसदात्मकं निरस्यति, स्वयमनभ्युपगतं तु भावैकान्तमभावैकान्तं वा विधत्ते, अभावस्य भावेनुप्रवेशाद्भावस्य वा सर्वथाऽभावे ', अन्यथा भावाभावयोर्भेदप्रसङ्गात् । ततो नोभ है । अर्थात् यह शून्यवादी या तो अपने ज्ञान से सभी जगत् को शून्य सिद्ध करता है, या पर के उपदेश से । अतः स्वपर इन दोनों में से किसी एक का अस्तित्व सिद्ध हो जाने से सर्वथा शून्यवाद कहाँ बनता है ? इसीलिये वह अनभ्युपेत- अपने द्वारा अस्वीकृत प्रमाणादि के सद्भाव को स्वीकार कर ही लेता है । उसी प्रकार से भाव और अभाव के तादात्म्यैकांत - मिश्रितकांत को कहता हुआ भाट्ट भी अपने द्वारा स्वीकृत सत्-असत्रूप एकांत का खंडन कर देता है और स्वयं अपने द्वारा अस्वीकृत भावैकांत अथवा अभावैकांत को स्वीकार कर लेता है । उसी का स्पष्टीकरण करते हैं कि - अभाव तो भाव में अनुप्रवेश कर जाता है अथवा भाव सर्वथा में प्रविष्ट हो जाता है । अन्यथा दोनों में अभिन्नपना होने पर भी एक का दूसरे में अनुप्रवेश न मानने पर तो भाव और अभाव ये दोनों पृथक्-पृथक् सिद्ध हो जायेंगे । भावार्थ-भाट्ट ने कहा कि हम जीवादि को अस्तिरूप - सद्भावरूप मानते हैं और नास्तिरूपअभावरूप भी मानते हैं । तब जैनाचार्यों ने कहा कि यदि आप एक जीव को अस्तिरूप कहते हो तो उसे ही नास्तिरूप कैसे कहोगे ? यदि कहो तो दोनों अवस्थायें एक ही साथ विद्यमान हैं, तब या तो जीव का अस्तित्व नास्तिरूप बन जावेगा या नास्तित्व अस्तिरूप हो जावेगा । पुनः जीव दोनोंरूप न होकर या अस्तिरूप सिद्ध होगा या नास्तिरूप । यदि कहो कि अस्ति नास्ति दोनोंरूप, जीव में पृथक्-पृथक् हैं, तो भी जीव कुछ अंश में ( आधे रूप में ) अस्तिरूप और आधे अंश में नास्तिरूप होगा किन्तु यह बात तो जगत् में किसी को भी इष्ट नहीं है । तब उसने कहा कि दोनों अवस्थायें जीव में मिश्रितरूप हैं, इस पर आचार्य ने कहा ये दोनों ही अवस्थायें परस्पर में विरुद्ध हैं, एक-दूसरे के सद्भाव में रह नहीं सकतीं । अस्ति, नास्ति का जड़मूल से नाश करके अपना अस्तित्व कायम करता है। और नास्ति, अस्ति का नाश करके ही रह सकता है ये परस्पर में विरोधी हैं। शीत-उष्ण के समान एकत्र इनका सद्भाव असंभव है । भाट्ट तब घबराकर बोला कि आप जैन भी तो जीवादि द्रव्य को अस्ति- नास्तिरूप से उभयात्मक मानते हैं, पुन: हमारी मान्यता में उलाहना क्यों देते हो ? तब जैनाचार्य ने कहा कि हे भाट्ट ! हमारे यहाँ यह परस्परविरुद्ध दोष नहीं आ सकता है, क्योंकि हम स्याद्वादी हैं कथंचित्-जीव को स्वचतुष्टय से अस्तिरूप मानते हैं और कथंचित् पर चतुष्टय से नास्तिरूप भी मानते हैं । अतः ये अस्ति नास्तिरूप दोनों ही स्वभाव एक ही जीव में भी एक साथ पाये जाते हैं विरोध नहीं आता है, क्योंकि हम अपेक्षावादी हैं किन्तु आप तो अपेक्षावाद को समझते नहीं । अतः परस्परनिरपेक्ष अस्ति नास्ति ये दोनों स्वभाव आपके यहाँ एक वस्तु में घटित हो नहीं सकते हैं । 1 अभावे भावस्यानुप्रवेशात् भावेकान्तमभावैकान्तं वा विधत्ते । ( ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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