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________________ उभयकांत का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २४६ 'विरोधान्नोभयेकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । 4भावाभावयोरेकतरप्रतिक्षेपैकान्तपक्षोपक्षिप्तदोषपरिजिहीर्षया सदसदात्मक सर्वमभ्युपगच्छतोपि वाणी विप्रतिषिध्येत, तयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणत्वात् । न हि सर्वात्मना कञ्चिदर्थं सन्तं तथैवासन्तमाचक्षाणः स्वस्थः, स्वाभ्युपेतेतरनिरासविधानकरणाच्छून्यावबोधवत् । [ परस्परनिरपेक्षसदसदात्मकं मन्यमानस्य भाट्टस्य निराकरणं ] यथैव हि सर्वथा शून्यमवबुध्यमानः स्वसंवेदनादन्यतो वा स्वाभ्युपेतं शून्यतैकान्तं निरस्यति, अनभ्युपेतं प्रमाणादिसद्भावं विधत्ते तथैव भावाभावयोस्तादात्म्यैकान्तं ब्रुवन् स्वा उत्थानिका-उसी प्रकार से परस्पर निरपेक्ष भावाभावैकांतपक्ष भी कल्याणकारी नहीं है। इस प्रकार से श्री स्वामीसमंतभद्राचार्यवर्य बतलाते हैं कारिकार्थ हे भगवन् ! स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी अन्य मतावलम्बियों के यहाँ निरपेक्ष भावाभावात्मक रूप उभयकांतपक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उसमें भी विरोध आता है ।।१३।। भाव और अभाव में से किसी एक का निराकरण करने पर और एकांतपक्ष में दिये गये दोषों को दूर करने की इच्छा से सभी वस्तु को सत् और असत्रूप से स्वीकार करने वाले भाट्ट के भी वचनों में विरोध ही आता है, क्योंकि वे दोनों भाव और अभाव परस्पर में परिहार-स्थितिलक्षण वाले हैं, अर्थात् भाव-अभाव ये दोनों एक-दूसरे का परिहार करके ही रहते हैं, क्योंकि सभीरूप से अर्थात् स्वस्वरूप के समान ही पररूप से भी कोई भी वस्तु अस्तित्वरूप (विद्यमान रूप) हो और उसी प्रकार से ही नास्तित्वरूप (अविद्यमान रूप) होवे, ऐसा कहता हुआ भाट्ट स्वस्थ नहीं है। इस कथन से तो अपने द्वारा स्वीकृत उभयात्मकतत्त्व का खंडन और अन्य के द्वारा स्वीकृत केवल भाव अथवा अभावतत्त्व का ही विधान हो जाता है, जैसे कि शून्यवादी अपने शून्यवाद की स्थापना करते हुये भी अपने शून्यवाद का खंडन एवं पर अस्तित्ववाद का ही विधान कर देता है। [ निरपेक्ष सत् और असत् को मानने वाले भाट्ट का निराकरण ] जिस प्रकार से सर्वथाशून्यरूप जगत् को स्वीकार करता हुआ शून्यवादी स्वसंवेदनरूप आत्मीयज्ञान से अथवा अन्य–अनुमानरूप परोपदेश से अपने द्वारा स्वीकृत शून्यतैकांत का खंडन कर देता 1 भट्टसांख्यापेक्षया पूर्वार्द्धम् । (ब्या प्र०) 2 भट्टानाम् । (दि० प्र०) 3 अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते । इति अधिकः पाठः । (दि० प्र०) सर्व वस्तु सदासदात्मकमवाच्यमेवेति पक्षे सौगताभिमते । = कथनम् । योपि भावाभावोभयकान्तादिपक्षत्रयोपक्षिप्तदोषजिहासया सर्वथाऽवक्तव्यम् तत्वमवलम्बेत सोपि सौगतः कथमवक्तव्यं तत्त्वं ब्रयात् । येनावाच्यतैकान्तेप्यवाच्यमित्युक्तियुज्यते तस्यावाच्यस्य परं शिष्यादिकं प्रतिवाद्यादिकं वा प्रतितत्त्वं प्रतिपादयेत् । (दि० प्र०) 4 एव । (ब्या० प्र०) 5 सर्वथा । (ब्या० प्र०) 6 सहानवस्थान । (ब्या० प्र०) 7 सौगतः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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