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________________ २३६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १२ भावस्वभावानाम् ? इति । सविस्मयं वचनम् । स्वपरपक्षसाधनदूषणोपगमे तु सत्सिद्धिरविप्रतिषिद्धा । तथा हि । बहिरन्तश्च परमार्थसत्, तदन्यतरापायेपि साधनदूषणप्रयोगानुपपत्तेः । इति प्रकृतार्थ परिसमाप्तौ किं त्रिलक्षणपरिकल्पनया + ? नुमान है। उस ज्ञान से ही स्वमत की सिद्धि एवं परमत के दूषण का ज्ञान होता है । तथैव वचनों से पर को समझाना परार्थानुमान है, इससे शिष्यादिकों को स्वपक्ष का साधन और परपक्ष में दूषण दिखाया जाता है । इन ज्ञान और वाक्य दोनों का ही असंभव होने से वे प्रमाण नहीं रहेंगे। तब तो आप बौद्ध नैरात्म्य - अभावरूप इष्टतत्त्व की सिद्धि स्वनिमित्त अथवा पर शिष्यादिकों को समझाने के लिये भी किसके द्वारा करेंगें ? तथा बहिरंग और अंतरंगरूप भाव-पदार्थों के स्वभावों को भी आप किसके द्वारा दूषित कर सकेंगे ? इस प्रकार “केन साधनदूषणं" यह वाक्य विस्मयसूचक है । यदि आप स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण को स्वीकार करेंगे, तब तो अंतस्तत्त्व और बहिस्तत्त्व की अस्तित्व सिद्धि अविरुद्ध ही हो जावेगी । भावार्थ - यह शून्यवादी बौद्ध तो सारे जगत् को इंद्रजालरूप मान रहा है । इस पर जैनाचार्य समझाते हैं कि भैया ! यदि तुम स्वयं का और शिष्य आदिकों का भी अस्तित्व नहीं मानोगे तब तो आप स्वयं भी शून्यवाद को कैसे समझोगे ? और शिष्यों के बिना किसे समझावोगे ? यदि स्वयं का और शिष्यों का अस्तित्व मान लोगे तब तो शून्यवाद कैसे टिकेगा ? किसी भी तत्त्व को समझने के लिये हमें प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम की आवश्यकता पड़ती है । प्रत्यक्ष से जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं उन्हें तो आप इन्द्रजालरूप मान रहे हैं। अनुमान में भी स्वार्थानुमान से स्वयं का अस्तित्व सिद्ध होता है और परार्थानुमान से वचनों के द्वारा शिष्यों को समझाया जाता है। यदि आप इन अनुमानों को मानेंगे तब तो स्वपर का अस्तित्व सिद्ध हो जावेगा । आगम को भी स्वीकार करने पर शून्यवाद कहाँ रहेगा ? और जब आप अनुमान, आगम आदि मानेंगे ही नहीं तब किस प्रकार से अपने पक्ष का स्थापन करेंगे ? और किस प्रकार से अन्य मतों का निराकरण करेंगे ? इसलिये स्वमत की स्थापना और परमत का निराकरण करने के लिये तो आपको अनुमान आदि भी मानने पड़ेंगे और स्वर को मान लेने से गुरू-शिष्य, भक्त भगवान् संबंध भी मानना पड़ेगा । पुनः सबका अस्तित्व सिद्ध हो जाने से सभी जगत् शून्यरूप कैसे सिद्ध होगा ? अर्थात् सभी जगत् का अस्तित्व ही सिद्ध होगा । बहिस्तव और अंतस्तत्त्व परमार्थ से सत्रूप हैं । उन दोनों में से किसी एक का भी अपाय - लोप करने पर साधन और दूषण के प्रयोग की अनुपपत्ति है- व्यवस्था नहीं बन सकती है। इस प्रकार से इस अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु के प्रयोग से ही प्रकृत अर्थरूप साध्य का पूर्णतया ज्ञान हो जाने से त्रिलक्षणरूप हेतु की परिकल्पना से क्या प्रयोजन है ? 1 केन साधनदूषणमेतत् । ( ब्या० प्र० ) 2 साध्यसिद्धि: । ( व्या० प्र० ) 3 पक्षधर्मत्वादि । ( व्या० प्र० ) 4 अस्माकं स्याद्वादिनां हेतोः सौगताभ्युपगतत्रिरूपकल्पनया कि कुतस्तदग्रेस्ति । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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