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अत्यन्ताभाव को सिद्धि ]
प्रथम परिच्छेद
एक-एक में भी तीन-तीन लक्षण मानने होंगे। क्योंकि वे प्रत्येक सत्रूप हैं । अन्यथा - वे एक-एक असत् रूप हो जायेंगे । क्योंकि सत् का लक्षण त्रयात्मक I
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जैन - यह कथन ठीक नहीं है, हमने तो भिन्नाभिन्न रूप दोनों पक्षों को ही कथंचित् स्वीकार किया है ।
उन उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य को कथंचित् उत्पादादिमान् द्रव्य से अन्वयरूप को अपेक्षा से अभेद स्वीकार करने पर स्थिति ही उत्पन्न होती है, वही नष्ट होती है इत्यादि कथंचित् पर्याय की अपेक्षा से उन्हीं स्थिति आदि का स्थित्यादिमान् से भेद स्वीकार करने पर भी प्रत्येक में त्रिलक्षण सिद्ध हैं । इसी प्रकार से तीन काल की अपेक्षा से भी त्रिलक्षणता सिद्ध है क्योंकि जीवादि वस्तु अन्वित द्रव्यरूप से कालत्रयव्यापी हैं किंतु निरन्वय क्षणिक एवं नित्य कूटस्थ एकांत में यह व्यवस्था असंभव है ।
अर्थात् जीवादि वस्तु - तिष्ठति, स्थास्यति, स्थितं । नष्टं, नश्यति, नंक्ष्यति । उत्पन्नं, उत्पद्यते, उत्पत्स्यते । इन नव भेदों में भी प्रत्येक के नव-नव (६-६) भेद होने से इक्यासी (८१) भेद वस्तु के सिद्ध हो जाते हैं । अर्थात् तिष्ठति में स्वकीय वर्तमान काल की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय, धौव्य, सिद्ध हैं यथा तिष्ठति में- तिष्ठति, उत्पद्यते नश्यति । भविष्यत्काल की अपेक्षा स्थास्यति, उत्पत्स्यते, विनंक्ष्यति । और अपने पूर्वकाल की अपेक्षा से स्थितं उत्पन्नं विनष्टं । ये नव भेद हो गये तथैव स्थास्यति में नव भेद कीजिये एवं स्थितं में भी नव भेद कीजिए ।
उसी प्रकार से उत्पन्नं, उत्पत्स्यते, उत्पद्यते और नश्यति, नष्टं विनंक्ष्यति में भी नव-नव भेद कीजिये । सब मिलकर इक्यासी भेद हो जाते हैं ।
जीव पुद्गलादि छह द्रव्य के भेद से सभी अशुद्ध द्रव्य अनंत पर्यायात्मक हैं तथैव शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से "शुद्ध सन्मात्र द्रव्य" है ।
वह सत्त्वही " द्रवति, द्रोष्यति, अदुद्रुवत् इति द्रव्यं" लक्षण से द्रव्य है । "क्षीयंते, क्षेष्यंते, क्षिताचास्मिन् पदार्था इति क्षेत्र" से क्षेत्ररूप है, क्षितिधातु निवास अर्थ में भी है । "कल्यंते, कलयिष्यंते, कलिताश्चास्मादितिकालः " लक्षण से वह सत्ता कालरूप है । कलिधातु रहने अर्थ में भी है । तथा भवति, भविष्यति, अभूदितिभावः “पर्यायः इति सत्ता एव विशेष्यते ।" इन द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से विशिष्ट सत्ता एक है अनंतपर्यायात्मक है । यह सत्ता परस्पर व्यावृत्त स्वभाव वाले अनंत गुण पर्यायों को प्रतिक्षण प्राप्त करती है ।
इस सत्ता में भी तिष्ठति आदि प्रकार से ८१ भेद कर लेना, समयसार में भी सत्ता का लक्षण कहा है ।
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"सत्ता सकलपदार्थास विश्वरूपात्वनंतपर्याया । स्थितिभंगोत्पादार्थां सप्रतिपक्षा भवत्येका" । इस प्रकार से पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से, द्रव्यार्थिकनय को गौण करने से सभी में स्वभावांतर से भिन्नता प्रसिद्ध है वही इतरेतराभाव है यह सिद्ध हुआ ।
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