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________________ २१८ ] अष्ट सहस्री [ कारिका ११ इतरेतराभाव और अत्यंताभाव की सिद्धि का सारांश हे भगवन् ! यदि अन्यापोह (इतरेतराभाव) का लोप किया जावे तो सभी वस्तु सर्वात्मक एकरूप हो जाती हैं एवं अत्यंताभाव का लोप करने पर आत्मा, प्रधान आदिरूप हो जायेगा पुनः सभी का इष्ट तत्त्व सर्वथा कहा हो नहीं जा सकेगा। क्योंकि एक में दूसरे का अत्यंत अभाव न होने से अपने इष्ट और अनिष्ट तत्त्वों में तीन काल में भी भेद नहीं हो सकेगा। कारण स्वभावांतर से स्वभाव व्यावृत्ति ही अन्यापोह है जैसे वर्तमान में पटस्वभाव में घट का अभाव । अतएव अपने स्वभाव से व्यावृत्ति होना अन्यापोह नहीं है अन्यथा घटादि वस्तु स्वभावशून्य हो जायेंगी। यदि कोई कहे कि प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव में अन्यापोह है सो ठीक नहीं है। क्योंकि जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति होवे वह प्रागभाव है। जिसके होने पर नियम से कार्य का विनाश होवे वह प्रध्वंस है। इतरेतराभाव के अभाव या सद्भाव में कार्य की उत्पत्ति या विनाश नहीं है। जैसे जल और अनल में इतरेतराभाव तो है किंतु जल के अभाव में अनल की उत्पत्ति का कोई नियम नहीं है तथा जल के सद्भाव में अनल का विनाश भी नहीं है अत: जल, अनल में इतरेतराभाव है । प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव नहीं है । प्रागभाव का अभाव होकर ही घट कार्य होता है और प्रध्वंसाभाव का अभाव करके ही कार्य घट का विनाश होता है दोनों की मौजूदगी में नहीं होता है। घट और पट में इतरेतराभाव है पट कभी नष्ट होकर मिट्टीरूप हो गया कालांतर में वही मिट्टी घट बन जाती है तथैव जलबिंदु समुद्र के सीप में मोती रूप पृथ्वीकायिक बन जाते हैं, पृथ्वीकायिक चंद्रकांत मणि से चंद्रमा की किरणों का स्पर्श होने पर पानी झरने लगता है, सूर्यकांत मणि से अग्नि की उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार के कारणों के मिल जाने पर पट के घटरूप होने में कोई विरोध नहीं है । पुद्गल द्रव्य की अनेक पर्यायों का भिन्न-भिन्न परिणमन देखा जाता है । किंतु इस प्रकार से चेतन और अचेतन में कदाचित तादात्म्यरूप से परिणमन हो जाये ऐसा शक्य नहीं है । अतः भिन्न-भिन्न तत्त्व में अत्यंताभाव है। यदि विज्ञानाद्वैतवादी यह कहे कि ज्ञानमात्र एक तत्त्व को मानने पर हमारे यहाँ कुछ भी दोष संभव नहीं है क्योंकि हमने ज्ञान और ज्ञेयाकार में व्यावृत्ति नहीं मानी है । तब तो ज्ञेयाकार विषय में ज्ञान का अनुप्रवेश हो जाने से एक ज्ञान ही बचेगा एवं दोनों में अभेद होने से एक के अभाव में दूसरा ज्ञान भी अभावरूप हो जायेगा । पुनः शून्यवाद ही शेष रहेगा। अतएव निर्विकल्पज्ञान का स्वलक्षण स्वरूप तो सिद्ध ही है । वह ज्ञेयाकार रूप स्वभावांतर से भिन्न है इसलिये आपके यहाँ भी इतरेतराभाव सिद्ध है। प्रत्येक पदार्थों में कार्य भेद होने से स्वभाव भेद पाये जाते हैं जैसे जीव में सुख दुःखादि भेद देखे जाते हैं। बौद्ध-आपके यहाँ "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" यह सत का लक्षण है। यदि जीवादि द्रव्य से स्थिति आदि अभिन्न हैं तब तो सब एकरूप संकर हो जायेंगे, यदि भिन्न मानों तब तो उत्पादादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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