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इतरेतराभाव की सिद्धि 1
प्रथम परिच्छेद
[ २०६
[ सत्तव द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपास्ति ]
तथा हि । भाव एव द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवदिति द्रव्यं तथा' क्षीयन्ते क्षेष्यन्ते क्षिताश्चास्मिन् पदार्था इति क्षेत्रं, कल्यन्ते कलयिष्यन्ते कलिताश्चास्मादिति कालः, भवति भविष्यत्यभूदिति भावः पर्याय इति सत्तैव विशेष्यते द्रव्यक्षेत्रकालभावात्मना, तस्या एव तथा व्यवहारविषयत्वघटनात् ।
[ सत्तायामपि एकाशीतिभेदा घटते ]
ततः परस्परव्यावृत्तस्वभावाननन्तगुणपर्यायान्प्रतिक्षणमासादयन्ती सत्तैव तिष्ठतीत्यादि योज्यं, तस्या अप्येकाशीतिविकल्पत्वोपपत्तेः ।
. [ सत्ता ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप होती है ] तथाहि-वह भाव "द्रवति, द्रोष्यति, अदुद्रुवत् इति द्रव्यं" वह सत्ता ही पर्यायों को प्राप्त करती है, करेगी और करती थी। इसलिये वह 'सत्' ही द्रव्यरूप है। तथा "क्षीयंते क्षेष्यते क्षिताश्चास्मिन् पदार्था इति क्षेत्र" पदार्थ ही जिसमें निवास करते हैं, करेंगे और करते थे, वह सत्ता ही क्षेत्र है। 'क्षिति' धातु निवास अर्थ में भी है। "कल्यंते, कलयिष्ते, कलिताश्चास्मादिति कालः" कल्यंते-पूर्वोत्तर पर्यायरूप से जिस भाव-सत्ता से पदार्थ 'वर्तते हैं—परिणमन करते हैं, वर्तेगें और वर्तते थे वह सत् ही काल है। तथा "भवति भविष्यंति अभूदिति भावः" पर्याय इति सत्ता एव विशेष्यते द्रव्यक्षेत्रकालभावात्मना" उसी प्रकार से सत्ता ही होती है, होगी और होती थी, इस प्रकार से सत्ता ही भाव पर्याय है। उपरोक्तरीत्या द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप से सत्ता ही विशिष्ट की जाती है, क्योंकि उस सत्ता में ही उस प्रकार का उपर्युक्त-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप व्यवहार का विषय घटित होता है।
[ सत्ता में भी ८१ भेद घटित करना चाहिये ] इसीलिये सत्तामात्र ही अनंतपर्यायात्मक सिद्ध है, यह बात सिद्ध हो जाने से परस्पर में व्यावृत्तस्वभाववाले अनंत गुण पर्यायों को प्रतिक्षण प्राप्त करती हुई स्वीकार करती हुई सत्ता ही 'तिष्ठति' है, इत्यादिरूप से 'स्थास्यति' आदि पदों की भी योजना उसी सत्ता में ही कर लेनी चाहिये, क्योंकि उस सत्ता में भी ८१ भेद बन जाते हैं।
] परिणामं याति । (दि० प्र०) 2 तिष्ठति स्थिता स्थास्यति विनश्यति विनष्टा विनंक्ष्यत्युत्पद्यत उत्पन्ना उत्पत्स्यते । (दि० प्र०)
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