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________________ इतरेतराभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १६३ संवेदनस्य कस्यचित्केनचिद्वेद्याद्याकारेण प्रत्यासत्तेरसत्त्वे तदुभयोरसत्त्वान्निरुपाख्यत्वम् । तत्प्रत्यासत्तिसद्भावे वा सिद्धश्चतुर्धापि संबन्धः, [ विज्ञानाद्वैतवादेऽपि चतुर्धा संबंधः सिद्धयति इति प्रतिपादयंति जैनाचार्याः ] संवित्तदाकारयोर्द्रव्यादिप्रत्यासत्तिचतुष्टयस्यापि भावात्परस्परं पारतन्त्र्यसिद्धेः । सिद्धस्य संविदाकारस्य संवित्परतन्त्रतानिष्टौ संविदभावेपि भावप्रसङ्गात्, संविदो वा स्वाकारपरतन्त्रतानुपगमे निराकारसंविदनुषङ्गात्, तथोपगमेपि संविदो' 'वेद्याकारविवेकपरतन्त्रतानभिमनने वेद्याकारात्मताप्रसङ्गात्, सर्वथा संबन्धाभावस्य च भावपरतन्त्रत्वानङ्गीकरणे' स्वतन्त्रस्याभावरूपत्वविरोधात् कुतस्तद्व्यवस्था ? तदयं कस्यचित्सिद्धस्यासिद्धस्य वा किसी भी ज्ञान के किसी भी ज्ञेयादि आकार से प्रत्यासत्ति का अभाव होने पर उन ज्ञान और ज्ञेय दोनों का अस्तित्व सिद्ध न होने पर दोनों में ही निरुपाख्यपना सिद्ध हो जाता है। अथवा यदि उस ज्ञेय और ज्ञान में प्रत्यासत्ति का सद्भाव मान लेंगे तब तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चार प्रकार का संबंध सिद्ध हो ही गया समझना चाहिये । [ विज्ञानाद्वैत वाद में भी चार प्रकार का संबंध सिद्ध हो जाता है आचार्य इसी बात का स्पष्टीकरण करते हैं ] तथा संवित् और संविदाकार में भी द्रव्य आदि चार प्रकार की प्रत्यासत्ति का सद्भाव सिद्ध हो जाने पर परस्पर में उन दोनों में तो परतंत्रता सिद्ध ही हो गई । और इस प्रकार से संविदाकार के सिद्ध हो जाने पर भी संवित् में परतंत्रता स्वीकार न करो तब तो संविद् के अभाव में भी संविदाकार के मानने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। अथवा संवित् में स्वाकार की परतंत्रता के स्वीकार न करने पर संवित् निराकार हो जावेगी, एवं ज्ञान को निराकाररूप स्वीकार करने पर भी यदि उसमें वेद्याकार के अभाव की परतंत्रता को स्वीकार न करें, तब तो उस ज्ञान में वेद्याकारात्मकपने का ही प्रसंग प्राप्त हो जावेगा और संबंधाभाव में भाव परतंत्रत्व स्वीकार न करने पर वस्तु के आश्रय से रहित स्वतंत्ररूप संबंधाभाव में अभावरूपत्व का विरोध आ जावेगा । पुनः उस संबंधाभाव की भी व्यवस्था कैसे बन सकेगी? इस प्रकार से यह सौत्रांतिक या वैभाषिकबौद्ध सिद्ध अथवा असिद्ध में परतंत्रता को स्वीकार करके सर्वत्र सिद्ध अथवा असिद्ध गुण, गुणी आदि में परतंत्रता क्या है ? 1 वेदकाकारेण । (दि० प्र०) 2 सौ० आह, संविदाकार: स्वयंसिद्धः संवित्पराधीनो नास्ति इति चेत् । स्या० आह संविदभावेपि सति तस्य संविदाकारस्य सदभाव एव । संवित्स्वयंसिद्धासंविदाकारपराधीना नास्तीति चेत् । स्या० तदा निराकारासं विज्जाता=स्या० संविन्निराकारेत्यङ्गीकारेपि सौगतस्य वेद्याकारस्य परोक्षपराधीनताऽनंगीकारे क्रियमाणे तस्याऽवेद्याकारत्वं प्रसजति । (दि० प्र०) 3 ता। (दि० प्र०) 4 का । (दि० प्र०) 5 अभावः । (दि० प्र०) 6 किञ्च । (दि० प्र०) 7 पदार्थः । (दि० प्र०) 8 घटस्य । सौगतः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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