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________________ १९२ ] अष्टसहस्री __ [ कारिका ११ पर्यायाणां च परस्परं 'स्वाश्रयैकद्रव्यसमवायसंबन्धाभावेप्यनेन निरुपाख्यत्वं प्रतिपादितम् । चक्षुरूपयोः परम्परया क्षेत्रप्रत्यासत्तेरसत्त्वे योग्यदेशेप्ययोग्यदेशवद्रूपे चक्षुनिं न जनयेत् । ततस्तद्ग्राहकानुमानासत्त्वादसत्त्वप्रसङ्गो, रूपस्यापि चेन्द्रियप्रत्यक्षासत्त्वादसत्त्वप्रसक्तिः । इत्युभयोनिरुपाख्यत्वम् । तथा कारणकार्यपरिणामयोः 'कालप्रत्यासत्तेरसत्त्वेऽनभिमतकालयोरिवाभिमतकालयोरपि' कार्यकारणभावासत्त्वादुभयोनिरुपाख्यतापत्तिः । तथा व्याप्तिव्यवहारकालवत्तिनो—मादिलिङ्गाग्न्यादिलिङ्गिनोर्भावप्रत्यासत्यसत्त्वे क्वचित्पावकादिलिङ्गिनि 'ततोनुमानायोगाद"नुमानानुमेययोरसत्त्वप्रसङ्गान्निरुपाख्यत्वप्रसङ्गः1 । किं बहुना, अब क्षेत्र प्रत्यासत्ति को दिखाते हुये कहते हैं कि चक्षु और रूप के परस्पर में क्षेत्र प्रत्यासत्ति का अस्तित्व स्वीकार करने पर अयोग्यदेश के समान योग्यदेश में भी रूप का चक्षुइंद्रिय ज्ञान नहीं करा सकेगी। पुनः उस चक्षुइंद्रिय को ग्रहण करने वाले अनुमान का अस्तित्व सिद्ध न होने से चक्षु के असत्व का प्रसंग प्राप्त होगा अर्थात् "मुझ में चक्षु है क्योंकि रूपज्ञान का सद्भाव है, इस प्रकार के अनुमान का अभाव होने से चक्षुइंद्रिय का सद्भाव भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। एवं इंद्रियप्रत्यक्ष का असत्व होने से रूप के भी असत्व का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा और इस प्रकार से चक्षुइंद्रिय और रूप दोनों के ही निःस्वभावपने का प्रसंग आ जावेगा। तथैव काल प्रत्यासत्ति के विषय में स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि__कारण और कार्य परिणाम में काल प्रत्यासत्ति का अस्तित्व स्वीकार न करने पर अनभिमत काल के समान ही अभिमतकाल में भी कार्य-कारणभाव का अभाव हो जाने से उन कार्य-कारणभावरूप दोनों का ही स्वभावसिद्ध नहीं हो सकेगा। उसी प्रकार भावप्रत्यासत्ति को दिखलाते हुये कहते हैं कि___व्याप्तिरूप व्यवहारकालवर्ती जो धूमादि लिंग तथा अग्निआदि लिंगी हैं, उनमें भी भाव प्रत्यासत्ति के असत्त्व मानने पर किसी भी अग्नि आदि लिंगी में उस प्रकार से अनुमान की उद्भूति नहीं होगी एवं तब तो अनुमान और अनुमेय के असत्त्व का प्रसंग आ जावेगा तथा वे दोनों ही अनुमान और अनुमेय निःस्वरूप हो जावेंगे। अधिक और कहने से क्या प्रयोजन ? विज्ञानाद्वैत में भी ये चार प्रकार के संबंध घटित हो जाते हैं, उसी का आगे स्पष्टीकरण है । 1 कथञ्चित्तादात्म्यम् । (ब्या० प्र०) 2 गुणानां पर्यायाणाञ्च परम्परया संबन्धो द्रव्यद्वारेणेति । (ब्या० प्र०) 3 चक्षरूपस्थप्रदेशयोर्मध्यप्रदेशेन संबन्धात् । (दि० प्र०) 4 पूर्वोत्तरक्षणलक्षण । (दि० प्र०) 5 वस्तुनोः । (दि० प्र०) 6 व्यातेव्यवहत्तरकाल: ? (दि० प्र०) 7 उच्चलद्वहुलादिरूपो धूमो वह्निर्भासुराकारः इति तयोः स्वरूपप्रत्यासत्तिः । (ब्या० प्र०) 8 भूधरे । (ब्या० प्र०) 9 धूमात् । (व्या० प्र०) 10 बह्निज्ञानम् । (व्या० प्र०) 11 कालसंबन्धस्याभावे । (दि० प्र०) 12 स्या० हे सौगत ! न केवलमस्माकं द्रव्यादिसंबन्धचतुष्टयसिद्धिः । भवतोप्यस्ति । संबंधस्यानङ्गीकारे तव संवेदनवेद्याकारयोरसत्त्वं प्रसजति । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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