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________________ १६० ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ र्भासभेदेन' व्यभिचारात् । न चैवं शक्यमभ्युपगन्तुम् । ततो यावन्ति संबन्ध्यन्तराणि तावन्तः प्रत्येकं भावस्वभावभेदाः परस्परव्यावृत्ताः सह क्रमेण च प्रतिपत्तव्याः । [ बौद्ध: पदार्थेषु सर्वथा संबंधं न मन्यते ] ननु च सर्वथा संबन्धासंभवाद्भावानां पारतन्त्र्यानुपपत्तेः स्त्री, पुत्र माला, चन्दन आदि पदार्थ हैं इन सहकारीकारण के सम्बन्ध से पुरुष के परिणामों में सुख आदि भाव उत्पन्न होते हैं। इस पर बौद्ध तो सम्बन्ध को ही समाप्त करने का अतिसाहस करने लगा । उसी का आगे स्पष्टीकरण है । इसीलिये अंतरंग और बहिरंग पदार्थ में एकांत नियम- रूप से स्वभावभेद की सिद्धि हो जाने पर कहीं पर भी एकत्व की व्यवस्था नहीं हो सकती है । अन्यथा निर्भास भेद होने पर भी चित्रज्ञान अथवा चित्रपट आदि में एकरूपता स्वीकार करने पर केवल रूपादि में ही अभेद नहीं होगा । शंका- पुनः क्या होगा ? समाधान - किसी आत्मा आदि के क्रमशः सम्बन्ध्यन्तर - सहकारी कारणमाला, स्त्री, भोजन आदि भिन्न वस्तु का सम्पर्क होने पर भी स्वभाव में भेद नहीं हो सकेगा । पुनः क्रम से होने वाले सुखादि कार्य जिनके कारण भिन्न-भिन्न हैं, वे भी उसके स्वभावभेद का अनुमान नहीं करा सकेंगे । क्रमशः जो सुखादि कार्यभेद हैं जो कि साधन के धर्म हैं, उनका किसी एकवस्तु में समानकरणसामग्री के सम्बन्ध से प्राप्त हुआ जो प्रतिभासभेद है, उससे व्यभिचार आवेगा, किन्तु ऐसा स्वीकार करना शक्य ही नहीं है, क्योंकि कार्य के भेद से कारण में भेद माना ही जाता है और उसी प्रकार प्रतिभास के भेद से वस्तु के स्वभाव में भी भेद मानना ही होगा । इसीलिये जितने सहकारीकारणरूप भिन्न-भिन्न सम्बन्ध हैं, उतने ही प्रत्येक पदार्थों में स्वभावभेद है, जो परस्पर में व्यावृत्त - भिन्न-भिन्नरूप हैं। जो कि युगपत् भी और क्रम-क्रम से पाये जाते हैं, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । अर्थात् युगपत् जैसे दीप आदि में तैल का शोषण, बत्ती का जलाना, कज्जल छोड़ना, अंधकार का नाश करना, पदार्थों का प्रकाशन करना आदि स्वभावभेद पाया जाता है और क्रम से जैसे जीव में सुख-दुःख आदि स्वभावभेद देखे आते हैं । इसी प्रकार की व्यवस्था स्वीकार कर लेने पर तो अपने आप ही इतरेतराभाव आ जाता है । [ बौद्ध पदार्थों में सर्वथा सम्बन्ध नहीं मानते हैं ] प्रश्न- पदार्थों में सर्वथा सम्बन्ध का अभाव होने से परतन्त्रता नहीं बन सकती है । 1 स्पष्ट स्पष्टभेदेन निर्भासस्य भेदेपि कारणस्यैकरूपत्वात् । ( दि० प्र० ) 2 प्रतिभासभेदेप्येकत्वप्रकारेण । ( दि० प्र० ) 3 सौ० हे स्या० ! वस्तु क्षणिकं तस्य परेण सह सर्वथा संबन्ध एव नास्ति संबन्ध्यन्तरं कुतः यतः भावानां पारतन्त्र्यं नोत्पद्यते । ( दि० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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