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________________ इतरेतराभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १८६ दमन्तरेणानुपपत्तेः । ततोन्तर्बहिश्च स्वभावभेदकान्तसिद्धेर्न' क्वचिदेकत्वव्यवस्था । अन्यथा' निर्भासभेदेपि कस्यचिदेकरूपतोपगमे न केवलं रूपादेरभेद :। किं तर्हि ? कस्यचित्क्रमशः संबन्ध्यन्तरोपनिपातोपि स्वभावं' न भेदयेत् । ततः क्रमवन्त्यपि कार्याणि तत्स्वभावभेदं नानुमापयेयुः", क्रमशः सुखादिकार्यभेदस्य 'साधनधर्मस्य क्वचिदेकत्र समानसंबन्धोपनीतनि इस प्रकार एक ही वस्तु में लगी है दृष्टि जिनकी ऐसे दूर और आसन्नवर्ती पुरुषों के प्रतिभास-ज्ञान में भेद होने से उस विषयभूत वस्तु में भी विशद-अविशदलक्षण स्वभावभेद हो जावे क्योंकि प्रतिभास और स्वभाव में कोई विशेषता नहीं है दोनों समान ही हैं क्योंकि करणसामग्री के भेद के समान विषय में स्वभाव भेद के बिना दूर, निकट आदि देश रूप सामग्री सम्बन्ध का भेद भी नहीं बन सकता है। भावार्थ-यहाँ जैनाचार्य कहते हैं कि सामने एक वृक्ष है कुछ व्यक्ति दूर से देख रहे हैं, कुछ अतिनिकट हैं, कुछ लोग थोड़ी दूर पर हैं। सभी को एक साथ वृक्ष देखने में उस वृक्ष का प्रतिभास ज्ञान स्पष्ट, कम स्पष्ट और अस्पष्टरूप से हो रहा है। किसी को वृक्ष साफ-साफ पत्तों, पुष्पों, फलों सहित दिख रहा है, कोई निकट भी है किन्तु दृष्टि की कमजोरी होने से उसे वृक्ष के अवयव विशेष कम साफ दिखते हैं फल, फूल, पत्तियाँ पृथक्-पृथक् नहीं झलकती हैं। अनेक व्यक्तियों को अनेक प्रकार का स्पष्ट-अस्पष्टादि ज्ञान हो रहा है। इस उदाहरण में उन देखने वाले व्यक्तियों में ही स्वभावभेद हो ऐसा नहीं है या सभी ज्ञानों में ही स्वभावभेद हो इतना मात्र भी नहीं है, किन्तु उस वृक्ष में भी अनेकों स्पष्ट, अस्पष्ट, कुछकमस्पष्ट आदि अनेक शक्तियाँ विद्यमान हैं। मतलब यह है कि उस वृक्ष में भी स्वभावभेद मानना पडेगा। अतः सभी में स्वभावभेद होने से एक स्वभाव दूसरे स्वभाव से पथक है इसी का नाम इतरेतराभाव है ऐसा समझना चाहिये। यहाँ पर जैनाचार्यों ने भिन्न-भिन्न सहकारी कारण सामग्री के सम्बन्ध से वस्तु में स्वभावभेद को प्रकट किया है जैसे एकपुरुष को सुख के लिये बाह्य सहकारी कारणसामग्री, उत्तम भोजन, 1 यत एवं ततः अन्तस्तत्त्वे बहिस्तत्त्वे स्वभावेन नानात्मकघटनात् क्वचिदर्थे एकस्वभावघटना नास्ति । (दि० प्र०) 2 दूरपादपादो। (ब्या० प्र०) 3 कोर्थः। अन्यथाऽन्तस्तत्वबहिस्तत्त्वयोः सर्वथास्वभावभेदाभावे निर्भासभेदोस्ति तस्मिन् सत्यपि सौगताभ्युपगतस्य कस्यचित् क्षणिकस्य वस्तुनः एकत्वाभ्युपगमे केवलं रूपादेरभेदो न किन्तु कस्यचित् सांख्याभ्यूपगतस्य नित्यस्य वस्तुनः क्रमेण सहकारिकारणसामग्रीमेलापकोपि नास्ति नानाकार्याणि जनयन्नपि स्वभाव न भिन्नत्ति । (दि० प्र०) 4 सुखादिकारणसामर्थ्यम् । (दि० प्र०) 5 नित्यम् । आत्मादि । (दि० प्र०) 6 क्रमशः सुखादिकार्याणि कारणस्वरूपभेदनिबन्धनानि विभिन्न कार्यत्त्वात् घटपटादिवत् । (दि० प्र०) 7 स्या० जीवादि वस्तुपक्षो नानात्मकं भवतीति साध्यो धर्मः सुखदुःखादिकार्यात्मकत्वात् =पराह-हे स्याद्वादिन् ! तव हेतुर्व्यभिचारी कुत: क्वचिदेकस्मिन् द्रव्ये चक्षरादिकरणसामग्री संयोगजनितनिर्भासभेदेन कृत्वा सुखादिकार्यभेदस्य साधनधर्मस्य व्यभिचारदर्शनात् स्या० वस्तूस्वभावस्य नानात्मकत्वाभावे केवलं संबन्धोपनीतनिर्भासभेदेनैवमङ्गीकर्तन शक्यमस्माभिः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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