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________________ १५६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ वान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिः पारमाथिकी सिध्यतीति सिद्धस्तल्लक्षणोन्यापोहः । तथा' चित्रज्ञानस्य स्वनि सेभ्यो लोहितादिभ्यो विषयस्य च चित्रपटादेः स्वाकारेभ्यो नीलादिभ्यो व्यावृत्तिः सिद्धा। [ चित्राद्वैतज्ञानस्यकानेकस्वभावात् एकानेकस्वभावज्ञाने इतरेतराभावः सिद्धयत्येव ] कुतः प्रमाणादिति चेत्, तद्वतस्तेभ्यो व्यावृत्तिः, एकानेकस्वभावत्वाद् 'घटरूपादिवदित्यनुमानात् । न हि लोहितादिनिर्भासा एव नीलाद्याकारा एव वानेकस्वभावा, न पुन उसको स्वीकार करने पर "स्वभावांतर से स्वभाव की व्यावृत्ति" वास्तविक रूप सिद्ध हो जाती है। पुनः इस प्रकार से उस लक्षण वाला अन्यापोह भी सिद्ध ही हो जाता है और उसी प्रकार-ज्ञान के विषयभूत पदार्थों में परस्पर में भेद को मान लेने पर चित्रज्ञान में स्वनि सरूप लोहित आदि ज्ञानाकारों की तथा विषयरूप चित्रपट आदि में अपने-अपने आकाररूप नील, पीतादि वर्गों की व्यावृत्ति सिद्ध हो जाती है। भावार्थ-चित्राद्वैतवादी एक चित्रज्ञानमात्र ही मानता है और कुछ भी बाह्यपदार्थ नहीं मानता है एवं उस चित्रज्ञान को एक कहता है । अतः उसका कहना है कि इस एक चित्रज्ञान में इतरेतराभाव कैसे घटित होगा? क्योंकि एक ही वस्तु में “यह इससे भिन्न है" ऐसा व्यवहार कैसे होगा ? इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि एक चित्रपट में काले, पीले, लाल, हरे और सफेद आदि अनेक रंग से बने हुये मयूर, हंस आदि चित्र कहलाते हैं वे रंग एक दूसरे से पृथक् अवश्य हैं और उनका ज्ञान भी एक दूसरे से पृथक् है नीले कंठ को जानने वाला ज्ञान हरे सुनहरे आदि रंग के ज्ञान से पृथक् ही है । बस ! इसी का नाम तो इतरेतराभाव है एक वर्ण दूसरे वर्ण से भिन्न होकर व्यावृत्त स्वभाव वाला है । हरा वर्ण पीले वर्णरूप न होने से भिन्न स्वभाव से व्यावृत्त है और उस चित्र का ज्ञान भी एक वर्ण के ज्ञान से भिन्न-भिन्न रूप से अनेक वर्णों से युक्त चित्र को समझते हुये चित्रज्ञान कहलाता है। आप चित्र भी कहें और उसे एकरूप भी कहें ये दोनों बातें परस्पर बाधित हैं। अतः चित्राद्वैत में भी प्रतिभास (ज्ञान) भेद तथा चित्र में विषय स्वभावभेद होने से इतरेतराभाव सिद्ध ही है। [ चित्राद्वैतज्ञान एकानेकस्वभाव वाला है और एकानेकस्वभाव से इतरेतराभाव सिद्ध ही है ] शंका-आप इस प्रकार की व्यावृत्ति पुनः किस प्रमाण से सिद्ध करते हैं ? समाधान-"तद्वान्-चित्रपट आदि की उन चित्रज्ञान-लोहित आदि ज्ञानों से व्यावृत्ति होती है क्योंकि वे एकानेक स्वभाववाले हैं जैसे कि घट और उसके रूपादि । इस अनुमान से व्यावृत्ति की 1 तदेति पा० । (दि० प्र०) सौत्रान्तिकस्य । (ब्या० प्र०) 2 भेदः । (दि० प्र०) 3 अस्तीति साध्यो धर्मः । (दि० प्र०) 4 रसगन्धादि। (दि० प्र०) 5 सिद्धा । चित्रज्ञानस्य लोहितादिभ्यः स्वनि सेभ्य: पक्ष: । व्यावृत्तिरस्तीति साध्यो धर्म एकानेकस्वभावत्वात् । यथा घटस्य रूपरसादिभ्यः = द्वितीयं तद्वत: चित्रपटादेविषयस्य नीलादिभ्यः स्वकारेभ्यः पक्षव्यावृत्तिरस्तीति साध्यो धर्मः एकानेकस्वभावत्वात् घटरूपटादिवत् । (दि० प्र०) 6 ज्ञानाकारा। (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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