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________________ प्रथम परिच्छेद इतरेतराभाव की सिद्धि ] [ १८५ [ चित्राद्वैतवादिमतेऽपि इतरेतराभावः सिद्धयत्येव ] चित्रकज्ञानवादिनः पुनः शवलविषयनिर्भासेपि' लोहितादीनां परस्परव्यावृत्तिरभ्युपगमनीया', अन्यथा 'चित्रप्रतिभासासंभवात्तदन्यतमवत्', तदालम्बनस्यापि नीलादेरभेदस्वभावत्वापत्तेर्नीलाद्यन्यतमवत् । प्रतिभासभेदाभावेपि नीलादेर्भेदव्यवस्थितौ न किञ्चिदभिन्नमेकं' स्यात्, निरंशस्वलक्षणस्याप्यनेकत्वप्रसक्तेः । ततः पीतादिविषयस्वरूपभेदमन्विच्छता10 तत्प्रतिभासभेदोऽनेकविज्ञानवदेकचित्रज्ञानेप्येष्टव्यः । तदिष्टौ 2 च स्वभा [ चित्राद्वैतवादी के मत में भी इतरेतराभाव सिद्ध है ] पुनः चित्रकज्ञानवादी योगाचार को भी शबलविषय का प्रतिभास जिसमें है ऐसे चित्रज्ञान में भी लाल, पीले आदि जो अनेक ज्ञानाकार हैं, उनमें परस्पर में व्यावृत्ति-पृथक्पना स्वीकार करना ही चाहिये । अन्यथा चित्र का प्रतिभास ही असंभव हो जावेगा। जैसे कि किसी एकवर्ण का ज्ञान एकरूप है वैसे ही चित्रज्ञान भी एक वर्ण रूप होने से चित्र नहीं कहलावेगा । एवं उस चित्रज्ञान के आलंबन रूप नीलादि वर्गों में अभेद स्वभाव को आपत्ति का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। नीलादि किसी एक वर्ण के समान । अर्थात् लाल, पीले, नीले आदि अनेक वर्गों के द्वारा ही कोई चित्र बनता है । उस चित्र विचित्र वर्णों से मिश्रित किसी एक वस्तु को चित्र कहते हैं और उसके ज्ञान को चित्रज्ञान कहते हैं, किन्तु लाल, पीले आदि अनेक वर्ण ज्ञान में से किसी एक ज्ञान को चित्रज्ञान नहीं कह सकते हैं। यदि ज्ञान में भेद न मानकर नीलादि में भेद मानोगे तो भी दोष आते हैं यदि प्रतिभास भेद का अभाव होने पर भी नीलादि में भेद व्यवस्था मानो, तब तो कोई भी अभिन्नरूप एकवस्तु ही नहीं हो सकेगी। पुनः निरंश स्वलक्षणरूप प्रत्यक्ष को भी अनेकपने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा। इसलिए पीले, नीले आदि विषय-पदार्थ में स्वभावभेद को स्वीकार करते हुये अनेकविज्ञान के समान उसके प्रतिभासभेद भी एक चित्रज्ञान में स्वीकार करना ही चाहिये और 1 चित्रम् । (दि० प्र०) 2 पीतादिप्रतिभासानाम् । (दि० प्र०) 3 ईप् । (दि० प्र०) 4 चित्रकज्ञानवादिनाम् । (दि० प्र०) 5 विषयिणो ज्ञानस्य चित्रप्रतिभासासंभवादेव तदालंबनस्य नीलादेस्भेदस्वभावापत्तिरिति हेतुमद्भावो द्रष्टव्यः । (दि० प्र०) 6 अवान्यथा चित्रप्रतिभासासंभवादित्येतद्धेतुत्त्वे न दृष्टव्यम् । (दि० प्र०) 7 विषयिणो ज्ञानस्य प्रतिभासभेदाभावेपि विषयस्य नीलादेर्भेदव्यवस्थितिः इत्याशंकायामाह । (ब्या० प्र०) 8 सौ. नीलादीनां प्रतिभासभेदो नास्ति तथापि बहिर्नीलादयो भिन्ना व्यवतिष्ठन्ते । स्या० आह । हे विज्ञानवादिन् सौगत ! यद्येवं तदालोके एकमपि चित्तत्वमभिन्नमेकात्मकं नास्ति कोर्थः सर्वं चित्रात्त्मकमेव । कुतः भवदभ्युपगतस्य निरंशस्वलक्षणस्य बहिरर्थस्यापि चित्रात्मकत्वप्रसंगात् । (दि० प्र०) 9 प्रतिभासभेदाभावेपि भेदव्यवस्थाङ्गीकरणात् । (ब्या० प्र०) 10 अंगीकुर्वता । (ब्या० प्र०) 11 पीतादि । (दि० प्र०) 12 तस्य पीतादिप्रतिभासभेदस्येष्टौ अंगीकारे । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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