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________________ इतरेतराभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १८३ कथञ्चिद्व्यावृत्ता' वमेकान्तसिद्धिरन्यथा संबन्धासिद्धिः सर्वथा व्यावृत्तौ संविग्राह्याकारयोरुपकार्योपकारकभावानभ्युपगमात्सम्बन्धान्तराभावात्' । 'अव्यावृत्तावन्यतरस्वभावार्न किञ्चित्स्यात् । संविदो' ग्राह्याकारेनुप्रवेशे ग्राह्याकार एव स्यान्न संविदाकारः । तथा च तस्याप्यभावः, संविदभावे ग्राह्याकारायोगात् । ग्राह्याकारस्य वा संविद्यऽनुप्रवेशे संविदेव, न ग्राह्याकारः ' स्यात्, 'कस्यचित्संवेदनमात्रस्य विषयाकार विकलस्यानुपलब्धेः । ननु च 10 "नान्यनुभाव्यो । बुध्यस्ति तस्या नानुभयोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते " 1 सम्भव है, परन्तु हमारे यहाँ तो कौन सी वस्तु किसरूप होगी, जब कि हमने कोई पदार्थ ही स्वीकार नहीं किये हैं । हम तो केवल विज्ञानमात्र - एक विज्ञानाद्वैत को ही स्वीकार करते हैं । जैन - आप भी विचारशील नहीं हैं "क्योंकि आपके यहाँ भी एक ज्ञानमात्र में ग्राह्य - नीलादि आकार का कथंचित् - नीलादि आकाररूप विशेषपने से व्यावृत्ति करने पर तो अनेकान्तरूप द्वैत की ही सिद्धि होती है । अन्यथा यदि सर्वथा भेद स्वीकार करो तो सम्बन्ध की सिद्धि नहीं हो सकती है ।" अर्थात् ज्ञान को ज्ञेयाकार से व्यावृत्त - पृथक् मानना ही पड़ेगा यदि संवित् ज्ञान और ग्राह्याकार तथा ज्ञेयाकार में सर्वथा व्यावृत्ति मानोगे तब तो उपकार्य और उपकारकभाव नहीं हो सकेगा, क्योंकि उपकार्य-उपकारकभाव के सिवा आपने समवाय आदि सम्बन्धान्तर - भिन्न सम्बन्ध तो माने ही नहीं हैं । यदि आप कहें कि हमने “ज्ञान और ज्ञेयाकार में व्यावृत्ति नहीं मानी है, तब तो किसी एक की स्वभाव हानि हो जाने से दोनों में से कोई एक भी सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि ज्ञेयाकार विषय में ज्ञान का अनुप्रवेश हो जाने पर ज्ञेयाकार विषय ही रहेगा किन्तु संविदाकार नहीं रह सकेगा । एवं ग्राहकाकारज्ञान के अभाव में उस ग्राह्याकार का भो अभाव हो जावेगा, क्योंकि ज्ञान के अभाव में ग्राह्याकार रह नहीं सकता है । अथवा ग्राह्याकार- ज्ञेयाकार का ज्ञान में अनुप्रवेश हो जाने पर ज्ञानमात्र ही रह जावे - गा, पुनः ज्ञेयाकार कोई चीज नहीं बन सकेगी। उसी प्रकार ज्ञेयाकार के अभाव में ज्ञान का भी अभाव हो जावेगा । "क्योंकि विषयाकार से रहित किसी भी संवेदनमात्र की उपलब्धि नहीं हो रही है ।" अर्थात् विषयाकार को छोड़कर अकेला ज्ञानमात्र सम्भव नहीं है । बौद्ध ( संवेदनाद्वैतवादी ) - श्लोकार्थ - बुद्धि के द्वारा अन्य कोई भी वस्तु अनुभव - ग्रहण करने योग्य है ही नहीं और उस को ग्रहण करने वाला अन्य कोई अनुभव भी नहीं है । इस प्रकार ग्राह्य, ग्राहक भाव से रहित 1 भेदे । ( दि० प्र०) 2 द्वन्द्वः । ( ब्या० प्र० ) 3 समवायादि । ( ब्या० प्र०) 4 संविदो ग्राह्याकारात् । (ब्या० प्र०) 5 तयोधर्म मध्य एकस्य स्वभावहाने: । (ब्या० प्र० ) 6 संविग्राह्याकारस्वरूपं वा । ( ब्या० प्र० ) 7 भाष्यं भावयन्नाह । ( ब्या० प्र० ) 8 तथा च तस्याप्यभाव इत्येतदत्रापि सम्बन्धनीयम् । बुद्धया ग्राह्यमन्यः कश्चन् नास्तीत्यनेन बुद्धेग्रहकाकारो निरस्तः । ( दि० प्र० ) 9 तस्याप्यभावः कुतः । ( व्या० प्र०) 10 माध्यमिक: । ( ब्या० प्र०) 11 ग्राहकाकारोन्यो बोधो निरस्तस्तस्यापरोऽनुभवो ग्राहको न भवतीत्यनेन । ( ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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