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________________ १८२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ तदविरोधात्, पुद्गलपरिणामानियमदर्शनात् । न चैवं चेतनाचेतनयोः कदाचित्तादात्म्यपरिणामः, तत्त्वविरोधात् । [ विज्ञानाद्वैतवादी इतरेतराभावं न मन्यते तस्य विचारः क्रियते ] नन्वितरेतराभावस्य व्यतिक्रमे चार्वाकस्य पृथिवीतत्त्वं सकलजलाद्यात्मकमनुषज्यतां', सांख्यस्य च महदादिपरिणामात्मकमशेषतस्तदस्तु। सौगतानां तु विज्ञानमात्रमुपयतां कि किमात्मकं स्यादिति कश्चित्सोपि न विपश्चित् । सौगतानामपि हि 'संविदो ग्राह्याकारा अत्यन्ताभाव में भी अभाव है, अतः अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है। अर्थात् यह इतरेतराभाव अत्यन्ताभाव में भी नहीं जाता है, क्योंकि घट और पट में जो इतरेतराभाव है, वह तीनों कालों की अपेक्षा रखने वाला नहीं है। कदाचित् पट में भी घटरूप परिणाम सम्भव है । भावार्थ-पट कभी नष्ट होकर मिट्टीरूप परिणत हो गया, कालान्तर में वह मिट्टी घट बन जाती है, तथैव जलबिन्दु समुद्र में सीप में मोती रूप पृथ्वीकायिक बन जाते हैं । पृथ्वीकायिक चन्द्रकांतमणि से चन्द्रमा का स्पर्श होने पर पानी झरने लगता है। सूर्यकांतमणि से अग्नि की उत्पत्ति देखी जाती है अथवा अग्नि से अंजन आदिरूप पृथ्वो की उत्पत्ति देखी जाती है, इत्यादि अनेकों उदाहरण देखे जाते हैं। अतः उस प्रकार के परिणमन में कारण साकल्य के मिल जाने पर पट के घटरूप होने में कोई विरोध नहीं है। पुद्गलद्रव्य की अनेक पर्यायों का भिन्न-भिन्न रूप परिणमन करने में कोई भी नियम नहीं देखा जाता है । इस प्रकार से चेतन और अचेतन में कदाचित् तादात्म्यरूप परिणाम हो, ऐसा भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न तत्त्व होने से उनमें तादात्म्य का विरोध है। अतएव इन चेतन और अचेतनरूप भिन्न-भिन्न तत्त्वों में अत्यन्ताभाव ही है। सौगत (विज्ञानाद्वैतवादी)-इतरेतराभाव का लोप करने पर तो चार्वाक के यहाँ एक पृथ्वी ही सकल जलादिरूप सर्वात्मक हो जावेगी तो हो जावे और सांख्य के यहाँ महान् अहंकार आदि अनेक परिणामरूप २४ तत्त्व एकरूप बन जावेंगे, तो बन जावें। यह सब दोषारोप तो उन्हीं के यहाँ 1 घटपटप्रकारेण । (दि० प्र०) 2 हे स्या० ! सौगत आह, प्रागभावप्रध्वंसाभावात्यन्ताभावानंगीकारे चार्वाकादीनामप्येतत् वक्ष्यमाणं दूषणमायाति । (दि० प्र०) 3 जलाद्यात्मकवस्तु प्रधानमस्तु । इष्टतत्त्वम् । (दि० प्र०) 4 चार्वाकसांख्ययो नातत्त्ववादिनोरितरेतराभावानभ्युपगमेन कृत्त्वा उक्तं दूषणमायातु= अस्माकं विज्ञानमात्रमेकमेव तत्त्वमभ्युपगच्छतामन्तस्तत्त्वादिनां किं तत्त्वं किं स्वरूपं स्यादपित् न किमपि तत्त्वपरतत्त्वं स्वभावं न स्यादिति कश्चित् = स्या० आह सोऽपि न धीमान् = स्या. हे विज्ञानवादिन् ! भवदभ्युपगता संवित् ग्राह्याकाराद् व्यावर्तते न व्यावर्त्तते वेति विकल्पः । ब्यावर्त्तते चेत्तत्रापि कथञ्चिद्वयावर्त्तते सर्वथा व्यावर्त्तते वेति प्रश्नः । (दि० प्र०) 5 परिच्छित्तेः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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