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________________ १८० ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ [ इतरेतराभावस्य लक्षणं तस्य निह्नवे च हानिप्रदर्शनं ] स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहः। स्वभावान्तरादिति वचनान्न 'स्वस्वभावाव्यावृत्तिरन्यापोहः, तस्याः स्वापोहत्वप्रसङ्गात् । अथापि प्रागभावप्रध्वंसाभावयोरन्यापोहत्वप्रसक्ति रिति' चेन्न, 'कार्यद्रव्यात्पूर्वोत्तरपरिणामयोः स्वभावान्तरत्वेपि तस्य तद्व्यावृत्तेविशिष्टत्वात्' । यदभावे हि नियमत: कार्यस्योत्पत्तिः स प्रागभावः', यद्भावे च कार्यस्य नियता' विपत्तिः स प्रध्वंस:10 । न चेतरेतराभावस्याभावे भावे च कार्यस्योत्पत्ति [ इतरेतराभाव का लक्षण एवं उसके न मानने से हानि ] शंका-पुनः अन्यापोह का लक्षण क्या है ? समाधान-"स्वभावान्तर से स्वभावव्यावृत्ति अन्यापोह है।" अर्थात् वर्तमान के पटस्वभाव में घटस्वभाव से व्यावृत्ति-पृथक्पना अन्यापोह है। अतएव स्वभावान्तर इस पद के कथन से स्वभाव से व्यावृत्ति हो जाना अन्यापोह नहीं है। तथा च यदि अपने स्वभाव से ही व्यावृत्ति मानोगे तब तो स्व-स्वभाव के ही अपोह-नाश का प्रसंग हो जाने से घटादि वस्तु स्वभावशून्य ही हो जावेंगी। शंका-फिर भी प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव में अन्यापोह का प्रसंग प्राप्त होता है । समाधान नहीं। क्योंकि कार्यद्रव्य से पूर्व परिणाम प्रागभावरूप है और उत्तरपरिणाम प्रध्वंसरूप है उन दोनों में भिन्न-भिन्न होने पर भी वह कार्यद्रव्य पूर्व और उत्तर परिणामरूप की व्यावृत्ति से विशिष्ट है । अर्थात् इतरेतराभाव में व्यावृत्तिविशेष सम्भव नहीं है, जैसे कि पुद्गल और चैतन्य में व्यावृत्तिविशेष है, क्योंकि जिसके अभाव में नियम से कार्य की उत्पत्ति होवे, वह प्रागभाव है और जिसके होने पर नियम से कार्य का विनाश होवे वह-वह प्रध्वंस है। इस प्रकार से इतरेतराभाव के अभाव या सदभाव में कार्य की उत्पत्ति या विनाश नहीं है, क्योंकि जल और अनल (अग्नि) में इतरेतराभाव तो है, किन्तु जल के अभाव में अनल की उत्पत्ति का कोई नियम नहीं है और कहीं जल के सद्भाव में उस–अनल का विनाश भी नहीं है इसीलिये जल एवं अनल में इतरेतराभाव है, तथा प्रागभाव व प्रध्वंसाभाव का अभाव है। 1 ता। (दि० प्र०) 2 सौ० आह । हे स्याद्वादिन् ! यद्यपि स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहस्तथापि प्रागभावप्रध्वंसाभावी अन्यापोह एव इत्यायातम् । कोर्थः । प्रागभावप्रध्वंसाभावावन्यापोहादिन्नौ न भवत इति चेत् = स्या० हे सौगत ! एवं न । कस्मात् घटात्मकात् कार्यद्रव्यात् कुशूलकपाललक्षणयोः पूर्वोत्तरपरिणामयोः प्रामभावप्रध्वंसाभावयोभिन्नस्वभावत्वेपि तस्यान्यापोहस्य विशिष्टत्वात् विशिष्टत्वं कुतः तद्वयावृत्तेः । (दि० प्र०) 3 इतरेतराभावः । सद्भावः । (दि० प्र०) 4 अन्यापोहलक्षणस्य सद्भावात् । (दि० प्र०) 5 घटः। (दि० प्र०) 6 ताभ्याम् । (ब्या० प्र०) 7 तत् कुतः । (दि० प्र०) 8 यतः । (ब्या० प्र०) 9 नियमवती । (दि० प्र०) 10 आशंक्य । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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