SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतरेतराभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ १७६ 'अथेतरेतराभावात्यन्ताभावानभ्युपगमवादिनां दूषणमुद्भावयिषवः [मुद्विभावयिषवः] प्राहुराचार्या: । सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्रसमवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥ तदित्यनेन सर्वप्रवादिनामिष्टं तत्त्वं परामश्यते । तदेकं सर्वात्मकं स्यात्, अनिष्टात्मनापि भावादन्यापोहस्य व्यतिक्रमे । स्वसमवायिनः समवाय्यन्तरे समवायोन्यत्रसमवायः, अत्यन्ताभावव्यतिक्रमः । तस्मिन् सर्वस्येष्टं तत्त्वं सर्वथा' न व्यपदिश्येत, स्वेष्टात्मना1० व्यपदेशेऽनिष्टात्मनोपि व्यपदेशप्रसङ्गात्, तेनाव्यपदेशे स्वेष्टात्मनाप्यव्यपदेशापत्तेः स्वयमिष्टानिष्टात्मनो:11 कालत्रयेपि विशेषानुपगमात् । कः पुनरन्यापोहो नाम ? - उत्थानिका-अब इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव को नहीं स्वीकार करने वाले बौद्ध, सांख्य आदि के मत में दूषण को प्रगट करने की इच्छा रखते हुये आचार्य कहते हैं कारिकार्थ हे भगवन् ! यदि अन्यापोह-इतरेतराभाव का लोप किया जावे तो सभी वस्तु सर्वात्मक एकरूप हो जावेंगी। यदि अत्यन्ताभाव का लोप किया जावेगा, तब तो अन्यत्र समवाय स्वसमवायी आत्मा का भिन्न समवायी प्रधान आदि में समवाय हो जाने पर सभी का इष्ट तत्त्व सर्वथा कहा ही नहीं जा सकेगा। तत् इस पद से सभी प्रवादियों का इष्ट तत्त्व परामशित होता है वह इष्ट तत्त्व सर्वात्मक हो जावेगा, क्योंकि अन्यापोह का व्यतिक्रम करने पर अनिष्टस्वरूप से भी हो जावेगा और अत्यन्ताभाव का व्यतिक्रम करने पर स्व-चैतन्य गुण का समवाय जिसमें है, वह स्वसमवायी-आत्मा, उस आत्मा का भिन्नसमवायी प्रधान आदि में समवाय हो जावेगा और अन्यत्र समवाय हो जाने पर सभी का इष्टतत्त्व सर्वथा ही नहीं कहा जा सकेगा, क्योंकि अपने इष्टस्वरूप से व्यपदेश (कथन) करने पर अनिष्टरूप से भी व्यपदेश का प्रसंग प्राप्त होगा। अथवा अनिष्टरूप से व्यपदेश-कथन न होने पर अपने इष्टस्वरूप से भी व्यपदेश नहीं हो सकेगा। यदि एक में दूसरे का अत्यन्ताभाव नहीं माना जावेगा तो स्वयं-स्वरूप से इष्ट और अनिष्ट स्वरूप में तीनकाल में भी विशेष-अन्तर स्वीकार नहीं किया जा सकेगा। 1 प्रागभावप्रध्वंसाभावनिह्नववादिमतनिराकरणानन्तरम् । (दि० प्र०) 2 समन्तभद्राः। (दि० प्र०) 3 न कथ्येत । (ब्या० प्र०) 4 स्वरूपेण । (ब्या० प्र०) 5 आत्मनः सकाशात् । (ब्या० प्र०) 6 चेतना । (ब्या० प्र०) 7 को भावः । (ब्या० प्र०) 8 वादिनः । (व्या० प्र०) 9 अनिष्टात्मानवस्वेष्टात्मनापीति । (ब्या० प्र०) 10 स्वरूपेण । (ब्या० प्र०) 11 स्वरूपयोस्तत्त्वयोः । (दि० प्र०) 12 पटस्वरूपात् घटस्य । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy