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________________ शब्द के नित्यत्व का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ १६३ नित्यत्वसाधने प्रत्यभिज्ञान विरुद्धं न स्यात् । तदयं ताल्वादिव्यापारजनितश्रावणस्वभावं परित्यज्य विपरीत स्वभावमासादयन्नपि नित्यश्चेन्न किञ्चिदनित्यम् । [ शब्दाद्वैतवादस्य निराकरणं ] तदेवमकारादिवर्णस्त्रिजगत्यामेक' एवेत्यपि निरस्तं, युगपद्भिन्नदेशस्वभावोपलब्धघटादिवत् । भानुनानेकान्त इति चेन्न, तस्य' सकृद्भिन्नदेशतयोपलब्धावपि भिन्नस्वभावतको प्राप्त करते हुये भी यदि नित्य हैं, तब तो कोई भी वस्तु अनित्य कही ही नहीं जा सकेगी। क्योंकि स्वभाव से स्वभावान्तरित होना ही अनित्यपना है, और वह अनित्यपना शब्द में स्पष्ट है। [ शब्दाद्वैत का निराकरण ] इसी कथन से "अकारादि वर्ण तीनों जगत में एकरूप ही हैं।" इस प्रकार की मान्यता वाले शब्दाद्वैतवादी का भी खण्डन किया गया है. क्योंकि उन वर्गों की यगपत भिन्न अनुदात्त आदि भिन्नस्वभाव से उपलब्धि पाई जाती है, घटादि के समान । जैसे घट एक नहीं है, क्योंकि युगपत् भिन्न-भिन देशों में भिन्न-भिन्न स्वभाव से उपलब्ध हो रहे हैं। भावार्थ-मीमांसक ने वर्गों को नित्य सिद्ध करते हुये "प्रत्यभिज्ञानरूप हेतु" दिया। जैनाचार्य कहते हैं कि एक नर्तक भगवान् के सामने अनेक हाव, भाव अंग विक्षेप से नृत्य कर रहा है, उसकी उन क्रियाओं में भी प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है। यह वही हाव, भाव अंगविक्षेप आदि क्रियायें हैं जिसे इस नर्तक ने अमुक दिन नृत्य करते समय किया था इत्यादिरूप से प्रत्यभिज्ञान देखा जाता है । तथैव बुद्धि-क्षयोपशमज्ञान का भी प्रत्यभिज्ञान हो रहा है "यह हमारा ज्ञान वही ज्ञान है कि जिस ज्ञान से हमने अमूक दिन ऐसा अनुभव किया था।" यहाँ अंगविक्षेप आदि क्षणिक क्रियाओं का और बुद्धि का प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है, जो कि नित्य नहीं है, क्षणिक है। अतः आपका "प्रत्यभिज्ञान" हेतु नित्य वर्गों को ही सिद्ध करे ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत अनित्यरूप अंगविक्षेप और बुद्धि में भी चला जाने से व्यभिचारी है । इस पर मीमांसक बोल उठता है कि हमारे यहाँ ये क्रिया और बुद्धि भी नित्य हैं, अतः दोष नहीं है । जैनाचार्य कहते हैं कि यदि बुद्धि और क्रिया नित्य हैं, एक हैं, तब वर्ण जैसे नित्य हैं, वैसे ही एक हैं, ऐसा भी मान लो तब तो आप शब्दाद्वैतवादी ही हो जावेंगे । यहाँ मीमांसक शब्दों को नित्य और सर्व व्यापी मानता है, किंतु एक और निरंश नहीं मानता है, तथा शब्दाद्वैतवादी वर्गों को नित्य, व्यापी, एक निरंश ब्रह्मरूप मानता है यह समझना चाहिये । अब यहाँ 1 विपरीतभासादयन्नपि इति पा० । (दि० प्र०) 2 प्राप्नुवन् । (दि० प्र०) 3 व्यापकाऽकारादिवर्णाः प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्सामान्यवदिति चेत् । अनेकेष्वेव करणांगहारादिषु प्रत्यभिज्ञानाद्विरुद्धो हेतुरित्यादि प्रक्रियायोजनप्रकारेण । (दि० प्र०) 4 शब्दस्य नित्यत्वनिराकरणद्वारेणान्यस्य कस्यचित्परवादिनोभिप्रायेण अकारादिवर्णो लोके एक एव इत्यपि निषिद्धम् । स्या० अत्रानुमानमाह । वर्णः पक्ष: नानास्वभावो भवतीति साध्यो धर्मः युगपद्भिन्नदेशभिन्नस्वभावतयोपलभ्यमानत्त्वात् । यथा घटादिः । (दि० प्र०) 5 अनेक पुरुषापेक्षया। (दि० प्र०) 6 आह वर्णेकत्ववादी हे स्याः तव हेतोः जलबिम्बितभानुना व्यभिचारोस्तीति चेत् । (दि० प्र०) 7 भावो। (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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