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________________ १६२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० तथा बुध्द्येकत्वेपि न किञ्चिदनेकं स्यादित्यपि प्रतिपत्तव्यं, 'सर्ववर्णंकत्वप्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तुम्, अभिव्यञ्जकभेदाद्वैश्वरूप्यं जलचन्द्रवत् । क्वचित्प्रत्यक्षविरोधे तदन्यत्राप्यविरोधः कुतः ? यथैव हि नानादेशजलप्रतिबिम्बितस्य चन्द्रस्यानेकत्वप्रतीतावपि परमार्थतश्चन्द्रकत्वं तथैव नानादेशव्यञ्जकभेदादकारादिवर्णनानात्वप्रतीतावपि वर्णैकत्वमिति वदतः कः प्रतीघातः ? प्रत्यक्षविरोधो वर्णैकत्ववचने' स्यान्न पुनः क्रियायेकत्ववचने याज्ञिकस्येति कुतो विभागः सिध्येत् ? ततो वर्णाद्वैतमनिच्छता न करणाङ्गहारादिक्रियैका वक्तव्या, येन शब्दस्य समाधान--उस क्रिया के एकपने (नित्यत्व) के होने पर भी क्या इस समय उसी में अनेकपना (अनित्यत्व) हो सकता है ? अर्थात् नर्तकी को अंगविक्षेप भूविशेष आदि क्रियायें एक और नित्य हैं, पुनः अनेकरूप और अनित्य-क्षण-क्षण में बदलने वाली कैसे हो सकेंगी? और उसी प्रकार से बुद्धि में भी एकपना के होने पर कुछ भी अनेक-अनित्यरूप नहीं हो सकेगा, ऐसा भी समझना चाहिये। अर्थात् इस प्रकार से बुद्धि और क्रिया को एकरूप मानने पर वर्गों में अनेकपना न रहने से शब्दाद्वैत ही सिद्ध हो जावेगा वही दिखाते हैं पुनः सभी वर्गों में एकपने का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि हम ऐसा कह सकते हैं कि ये सभी वर्ण अभिव्यञ्जक के भेद से अनेकरूप हैं, जैसे कि एक ही चंद्र नाना जलपात्रों में नानाभेदरूप से प्रतिभासित होता है तथैव यदि आप कहें कि वर्षों में एकत्व के मानने पर प्रत्यक्ष से विरोध आता है. तब तो उस क्रिया के एकत्व में भी विरोध कैसे नहीं आवेगा ? अर्थात आवेगा ही आवेगा क्योंकि जिस प्रकार से नानादेश-नानापात्र के जल में प्रतिबिंबित होते हुये चंद्रमा अनेकरूप से प्रतीत होने पर भी वास्तव में चंद्रमा एक ही है, तथैव नानादेशवर्ती व्यञ्जक (वायु) के भेद से अकारादि वर्णों की नानापने से प्रतीति होने पर भी वर्गों में एकपना ही है, इस प्रकार से कहने वाले भी शब्दाद्वैतवादी के यहाँ क्या विरोध है ? वर्णों को एकरूप मानने पर तो प्रत्यक्ष से विरोध होवे और पुनः क्रिया आदि को एकरूप मानने में विरोध न होवे, यह विभाग भी आप याज्ञिक (मीमांसक) के यहाँ कैसे सिद्ध होगा? अतएव वर्णाद्वैत को न स्वीकार करते हुये आपको करण अंगहार आदि क्रियायें एकरूप नहीं माननी चाहिये कि जिससे शब्द को नित्य सिद्ध करने में "प्रत्यभिज्ञान हेतु" विरुद्ध न हो जावे। अर्थात् अंगहार आदि क्रियाओं का प्रत्यभिज्ञान तो होता है, पर वे नित्य न होकर अनित्य हैं । अतः आपका हेतु विरुद्ध है, पुनः उस 'प्रत्यभिज्ञान' हेतु को व्यभिचारी सिद्ध करते हुये कहते हैं कि ये अकारादि वर्ण ताल्वादि व्यापार से उत्पन्न होने वाले श्रावण-सुनाई देना स्वभाव को छोड़कर विपरीत--अश्रावण 1 शवलं दृष्ट्वा धवलं पश्यत: स एवायं गौरिति प्रत्यभिज्ञानवत् ककारादिवर्ण श्रुत्वा ककारादिवर्णान्तरं शृण्वतः स एवायं वर्ण इति प्रत्यभिज्ञानसद्भावात् । (दि० प्र०) 2 नव । (दि० प्र०) 3 अनेकताल्वादिप्रभासकभेदात् । (दि० प्र०) 4 प्रतिवादिनः =स्याद्वादिनः का हानिः । (दि० प्र०) 5 बुद्धिः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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