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________________ १५६ ] अष्टसहस्त्री [ कारिका १० श्चेत्सम्बन्धासिद्धिः, अनुपकारात् । तदुपकारान्तरे वा स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्था प्रधानतत्परिणामव्यतिरेकपक्षवत्' । [ वर्णानां नित्य सर्वगताभ्युपगमे सदैव श्रुतिरश्रुतिर्वा भविष्यति यतः क्रमशः श्रुतिविरुद्धैव ] किञ्च वर्णाः सर्वे नित्य सर्वगतास्तद्विपरीता' वा ? न तावद्वितीयः पक्षोऽनभ्युपगमात् । प्रथमपक्षे तु वर्णानां व्यापित्वान्नित्यत्वाच्च क्रमश्रुतिरनुपपन्नैव, देशकालकृतक्रमासंभवात् । तदभिव्यक्तिप्रतिनियमात्तेषां क्रमश्रुतिरिति चेन्न, अस्मिन्नपि पक्षे समानकरणानां तादृशामभिव्यक्तिनियमायोगात् सर्वत्र सर्वदा सर्वेषां संकुला श्रुतिः स्यात् । ही तो है। यदि आप उस स्वभाव को शब्द से भिन्न कहो तब वह असमर्थ स्वभाव इस शब्द का है। यह सम्बन्ध करना भी असम्भव है । यदि उपकार्य – उपकारकसम्बन्ध मानों तो भी शब्द में उस असमर्थता से होने वाला उपकार उससे भिन्न है या अभिन्न ? इत्यादि प्रश्नों से आपका सिद्धान्त टिक नहीं सकेगा क्योंकि उपकारक को उपकार्य से सर्वथा भिन्न कहने पर 'यह उसका उपकार इस पर है' ऐसा कहना सम्भव नहीं है एवं अभिन्नपक्ष में तब तो उपकार से वह शब्द ही किया जावेगा पुनः नित्यपक्ष समाप्त हो जावेगा इत्यादि । मतलब यही निकलता है कि शब्द के उपादानकारण पुद्गल तो नित्य हैं किन्तु ताल्वादिसहकारी - निमित्तकारणों से उनकी शब्द पर्याय से परिणति होकर उत्पत्ति होती है अतः वे पर्यायदृष्टि से अनित्य हैं ऐसा मानना चाहिये । [ सभी वर्णों को नित्य एवं सर्वगत मानने पर या तो वे सदा ही सुनाई देंगे या कभी भी नहीं सुनाई देंगे, क्योंकि क्रम से सुनने का विरोध आता है ] दूसरी बात यह है कि सभी वर्ण नित्य, सर्वगत हैं, अथवा उससे विपरीत हैं ? आप मीमांसक दूसरा पक्ष तो ले नहीं सकते, क्योंकि आपने वैसा अनित्य एवं असर्वगत वर्णों को माना ही नहीं है। और यदि प्रथमपक्ष स्वीकार करें तो "सभी वर्ण व्यापी एवं नित्य हैं अतः उनकी क्रम से श्रुतिसुनना नहीं बन सकेगा ।" क्योंकि सर्वथा नित्य एवं व्यापी शब्दों में देश और काल से होने वाला क्रम सम्भव नहीं है । मीमांसक उन शब्दों का अभिव्यक्तिरूप प्रतिनियम पाया जाता है । इसीलिये उनका क्रम से सुनना बन सकता है । अर्थात् 'गौ' शब्द के बोलने पर पहले 'गकार' शब्द सुना जाता है अनन्तर 'औकार' शब्द सुना जाता है, एक साथ नहीं सुना जाता है । अतएव क्रमशः अभिव्यक्ति होने से ही सुनने का क्रम भी बन जाता है । जैन --- ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि इस पक्ष में भी नित्य एवं सर्वगत शब्दों में "सभी के श्रोत्रेन्द्रियरूप करण समान ही होते हैं, अतः उन नित्य और सर्वगत शब्दों की अभिव्यक्ति का नियम 1 सांख्यमते । ( दि० प्र०) 2 श्रोत्र । ( दि० प्र० ) 3 अनित्याऽसर्वगतावेति विकल्पद्वयम् । ( दि० प्र०) 4 वर्णानाम् । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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